इस घर का यह सूना आंगन – विजय देव नारायण साही

सच बतलाना‚
तुम ने इस घर का कोना–कोना देख लिया
कुछ नहीं मिला!
सूना आंगन‚ खाली कमरे
यह बेगानी–सी छत‚ पसीजती दीवारें
यह धूल उड़ाती हुई चैत की गरम हवा‚
सब अजब–अजब लगता होगा

टूटे चीरे पर तुलसी के सूखे कांटे
बेला की मटमैली डालें‚
उस कोने में
अधगिरे घरौंदे पर गेरू से बने हुए
सहमी‚ शरारती आंखों से वे गोल गोल सूरज चंदा!
सूखी अशोक की तीन पत्तियां ओरी पर
शायद इस घर में कभी किसी ने बन्दनवार लगाई थी–

यह सब का सब
बेहद नीरस‚ बेहद उदास!
तुम सोच रही होगी‚ आखिर
इस घर में क्या है जिस को कोई प्यार करे?
शायद जो तुमने पाया उतना ही सच है।
पर अक्सर काफ़ी रात गये
इस घर का यह सून आंगन
जाने कैसे स्पंदन से भर–भर जाता है
बेबस आंखों से देखा करता है मुझ को‚
जैसे कोई खामोश दोस्त‚
मजबूर‚ किंतु हर दर्द समझने वाला हो!
सच‚ अक्सर काफ़ी रात गये।

∼ विजय देव नारायण साही

About 4to40.com

Check Also

World Lupus Day: Date, History, Significance, Facts about autoimmune disease

World Lupus Day: Date, History, Significance, Facts about autoimmune disease

World Lupus Day is dedicated to people worldwide who suffer from this debilitating autoimmune disease …