मत बुझाओ!
जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी…
पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले
अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ,
आँसूओं से जन्म दे-देकर हँसी को
एक मंदिर के दिए-सा जल रहा हूँ;
मैं जहाँ धर दूँ कदम वह राजपथ है,
मत मिटाओ!
पाँव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी…
बेबसी मेरे अधर इतने न खोलो
जो कि अपना मोल बतलाता फिरूँ मैं,
इस कदर नफ़रत न बरसाओ नयन से
प्यार को हर गाँव दफनाता फिरूँ मैं;
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूँ,
मत बुझाओ!
जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी…
जी रहे हो किस कला का नाम लेकर
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है,
सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है;
मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ,
मत सुखाओ!
मैं खिलूँगा, तब नई बगिया खिलेगी…
शाम ने सबके मुखों पर आग मल दी
मैं जला हूँ, तो सुबह लाकर बुझूंगा,
ज़िन्दगी सारी गुनाहों में बिताकर
जब मरूँगा देवता बनकर पुजूँगा;
आँसूओं को देखकर मेरी हँसी तुम,
मत उड़ाओ!
मैं न रोऊँ, तो शिला कैसे गलेगी…
∼ रामावतार त्यागी
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