जैसे तुम सोच रहे साथी - विनोद श्रीवास्तव

जैसे तुम सोच रहे साथी – विनोद श्रीवास्तव

जैसे तुम सोच रहे
वैसे आज़ाद नहीं हैं हम।

पिंजरे जैसी इस दुनिया में
पंछी जैसा ही रहना है
भर-पेट मिले दाना-पानी
लेकिन मन ही मन दहना है।
जैसे तुम सोच रहे साथी
वैसे आबाद नहीं है हम।

आगे बढ़ने की कोशिश में
रिश्ते-नाते सब छूट गए
तन को जितना गढ़ना चाहा
मन से उतना ही टूट गए।
जैसे तुम सोच रहे साथी
वैसे संवाद नहीं हैं हम।
पलकों ने लौटाये सपने
आँखें बोली अब मत आना
आना ही तो सच में आना
आकर फिर लौट नहीं जाना।
जितना तुम सोच रहे साथी
उतना बरबाद नहीं हैं हम।

आओ भी साथ चलें हम-तुम
मिल-जुल कर ढूँढें राह नई
संघर्ष भरा पथ है तो क्या
है संग हमारे चाह नई।
जैसी तुम सोच रहे साथी
वैसी फरियाद नहीं हैं हम।

जैसे तुम सोच रहे साथी
वैसे आज़ाद नहीं हैं हम।

~ विनोद श्रीवास्तव

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