अर्थ हमारे व्यर्थ हो रहे, कागज पुतले और खड़े हैं।
कागज के रावण मत फूंकों, जिन्दा रावण बहुत पड़े हैं॥
कुम्भ-कर्ण तो मदहोशी हैं, मेघनाथ निर्दोषी है,
अरे तमाशा देखने वालों, इनसे बढ़कर हम दोषी हैं।
अनाचार में घिरती नारी, हां दहेज की भी लाचारी–
बदलो सभी रिवाज पुराने, जो घर द्वार से आज अड़े हैं।
कागज के रावण मत फूंकों, जिन्दा रावण बहुत पड़े हैं॥
सड़कों पर कितने खरदूषण, आज झपटते नारी का तन,
मायावी मारीच दौड़ते, और दुखाते हैं सब का मन।
सोने की मृग सी है छलना, दूभर हो गया पेट का पलना–
गोदामों के बाहर कितने, मकरध्वज तो आज पड़े हैं।
कागज के रावण मत फूंकों, जिन्दा रावण बहुत पड़े हैं॥
लखन लाल ने सुनो ताड़का, आसमान पर स्वयं चढ़ा दी,
भाई के हाथों भाई के, राम राज्य की अब बर्बादी।
हत्या, चोरी, राहजनी है, यह युग की तस्वीर बनी है–
न्याय, व्यवस्था मौन हो रही, आतंकवादी खूब अड़े हैं।
कागज के रावण मत फूंकों, जिन्दा रावण बहुत पड़े हैं॥
बाली जैसे कई छलावें, आज हिलाते सिंहासन को,
अहिरावण आतंक मचाता, भय लगता अनुशासन को।
खड़ा विभीषण सोच रहा है, अपना ही सर नोच रहा है–
नेताओं के महाकुम्भ में, रावण के भी बाप पड़े हैं।
कागज के रावण मत फूंकों, जिन्दा रावण बहुत पड़े हैं॥
विश्वनाथ का यज्ञ अधूरा, अब न पूरा हो पायेगा,
दानवता अब मित्र हो गई, अब अन्याय चढ़ा आयेगा।
जन-पथ पर है जनता सारी, यह ‘रत्नम’ कैसी लाचारी–
राजद्वार तक पहुंच न पायें, पथ में पत्थर बहुत पड़े हैं।
कागज के रावण मत फूंकों, जिन्दा रावण बहुत पड़े हैं॥
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Kavi Manohar Lal Ratnam