Couplets of Kabir Das: [3]
कबीर की और बाईबल की कहानियों में समानताएँ देखी जा सकती हैं। इन दंतकथाओं की सत्यता पर प्रश्न उठाना निरर्थक होगा। हमें तो फिर दंतकथाओं की अवधारणा पर ही विचार करना पड़ेगा। कल्पनाएँ और मिथक सामान्य जीवन की विशेषता नहीं हैं। साधारण मनुष्य का जीवन तो भुला दिया जाता है। आलंकारिक दंतकथाएँ और अलौकिक कृत्य असाधारण जीवन से जुड़े होते हैं। भले ही कबीर का जन्म सामान्य रूप से ना हुआ हो, लेकिन इन दंतकथाओ से पता चलता है कि वे एक असाधारण और महत्वपूर्ण व्यक्ति थे।
कबीर अमृतवाणी || कबीर के दोहे – Sant Kabirdas Jayanti Special – Kabir ke dohe in hindi
जो मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार।।
भावार्थ – जो मनुष्य अपने गृहस्थ धर्म में स्थित है और शील विचारों वाला है, श्री गुरु महाराज की शब्द-वाणी का विवेकी है, साधुओं का सत्संग करता है और मन-वचन व कर्म से उनकी सेवा करता है, वह सौभाग्यशाली है, अर्थात उसका जीवन सार्थक है।
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै काला।।
भावार्थ – जो सिंह का वेश धारण कर, भेड़ की चाल चलते हैं और सियार की बोली बोलते हैं, उन्हें अवश्य कुत्ता फाड़कर खा जाता है अर्थात् जिनका वेश तो कुछ है और चाल कुछ और है तथा कहते-करते कुछ और हैं, ऐसे छलिया लोग अवश्य ही मार खाते हैं।
माला तिलक लगाय के, भक्ति न आई हाथ।
दाढ़ी मूंछ मुंडाय के, चले दुनी के साथ।।
भावार्थ – माला पहन ली और तिलक लगा लिया, परंतु इससे भक्ति प्राप्त नहीं हुई। दाढ़ी-मूंछ भी मुंडवा ली और दुनिया के साथ पड़े, इससे कुछ भी लाभ नहीं हुआ अर्थात् केवल बाहर के प्रदर्शन मात्र से भक्ति नहीं होती, यह तो स्वयं को तथा औरों को भी धोखा देने वाली बात है। अतः आंतरिक मन को संयमित करो।
शब्द बिचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पांव।
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छांव।।
भावार्थ – सत्य-ज्ञान के निर्णायक शब्दों का विचार करते हुए सन्मार्ग पर चलें और जहां-जहां पांव पड़ें, वह ज्ञान के आधार पर ही हो। फिर चाहे, वह रमता रहे, भ्रमण करता रहे या बैठा रहे, चाहे आश्रम में रहे, चाहे आश्रम में रहे या पर्वत की गुफा में रहे, चाहे वृक्ष या झाड़ी की छाया में रहे, अर्थात् बोधपूर्वक साधना-परायण स्थिति में कहीं भी रहे, कोई बात नहीं।
कवि तो कोटिक कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट।
मन के मूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट।।
भावार्थ – कविता करने वाले कवि तो करोड़ों हैं और सिर मुंडवा कर घूमने वाले वेशधारी भी करोड़ों हैं, इनकी कोई विशेष बात नहीं, परंतु जिन्होंने अपने मन को वेश में कर लिया है, हमें ऐसे साधु-संत सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए।
गिरही सेवै साधु को, भाव भक्ति आनंद।
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुंद।।
भावार्थ – मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह साधु-संत की सेवा करे और सदा भक्ति प्रेम में स्थिर होकर आनंदपूर्वक रहे। वैरागी संत का धर्म है कि वह संसार के विवादों से दूर, सुख-दुःख से रहित उन्मुक्त भाव में रहे।
माला तिलक तो भेष है, राम भक्ति कछु और।
कहैं कबीर जिन पहिरिया, पांचों राखै ठौर।।
भावार्थ – जो चाल बगुले की चलते हैं, मगर अपने आपको हंस कहलाते हैं, भुला वे ज्ञान के मोती कैसे चुगेंगे? वे तो काल (जन्म-मरण) के फंदे में ही फंसे रहेंगे अर्थात जो छली-कपटी हैं, जिनका रहन-सहन ठीक नहीं है, वे साधु रूपी हंस कैसे हो सकते हैं।
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय।
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय।।
भावार्थ – सभी लोग वेश-आभूषण धारण कर केवल शरीर को ही जोगी का रूप बनाते हैं, परंतु मन को जोगी कोई नहीं करता। यदि मन को परिवर्तित कर (संयमशील) योगी बना लिया जाए तो सहज ही सारी सिद्धियां प्राप्त हो जाएंगी अर्थात् मानव का कल्याण हो जाएगा।
Very nice post.
Kabir Ke Dohe bahut hi behtreen hain….gyaanvardhak, great thoughts…