बैठ शिला की शीतल छांह‚
एक पुरुष‚ भीगे नयनों से‚
देख रहा था प्र्रलय प्रवाह!
नीचे जल था‚ ऊपर हिम था‚
एक तरल था‚ एक सघन;
एक तत्व की ही प्रधानता‚
कहो उसे जड़ या चेतन।
दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान;
नीरवता सी शिला चरण से
टकराता फिरता पवमान।
तरुण तपस्वी–सा वह बैठा‚
साधन करता सुर श्मशान;
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का‚
होना था सकरुण अवसान।
उसी तपस्वी से लम्बे‚ थे
देवदारु दो चार खड़े;
हुए हिम धवल‚ जैसे पत्थर
बन कर ठिठुरे रहे अड़े।
अवयव की दृढ़ मांस–पेशियां‚
ऊर्जस्वित था वीय्र्य अपार;
स्फीत शिराएं‚ स्वस्थ रक्त का
होता था जिनमें संचार।
चिंता–कातर वदन हो रहा
पौरुष जिसमे ओत प्रोत;
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत।
बंधी महा–वट से नौका थी
सूखे में अब पड़ी रही;
उतर चला था वह जल–प्लावन‚
और निकलने लगी मही।
निकल रही थी मर्म वेदना‚
करुणा विकल कहानी सी;
वहां अकेली प्रकृति सुन रही‚
हंसती सी पहचानी सी।