कौन जाने‚
नियति की आँखें बचाकर‚
आज धारा दाहिने बह जाए!
जाने
किस किरण–शर के वरद आघात से
निर्वर्ण रेखाचित्र यह बीती निशा का
रँग उठे कब‚ मुखर हो कब
मूक क्या कह जाए!
‘संभव क्या नहीं है आज?’
लोहित लेखनी प्राची क्षितिज की
कर रही है प्रेरणा या प्रश्न अंकित?
कौन जाने
आज ही निःशेष हों सारे
सँजोए स्वप्न
दिन की सिद्धियों में–
या कहीं अवशिष्ट फिर भी
एक नूतन स्वप्न की संभावना रह जाए!