नये साल का टँगा कलेण्डर कील पुरानी है।
कीलों से ही रोज यहाँ होती मनमानी है॥
सूरज आता रोज यहाँ पर लिए उजालों को।
अपने आँचल रात समेटे, सब घोटालों को।
बचपन ही हत्या होती है, वहशी लोग हुए।
और अस्थियाँ अर्पित होती गन्दे नालों को।
इन कीलों पर पीड़ा ही बस आनी जानी है।
नये साल का टँगा कलेण्डर कील पुरानी है॥
कीलों से उठती धड़कन आवाज लगाती हैं।
आँगन, गलियों, चौराहों से चीखें आती हैं।
यहाँ अमीरी में नंगे तन सड़कों पर नाचें।
मात-पिता को तरुणाई भी आँख दिखाती है।
यहाँ वासना की दलदल में फँसी जवानी है।
नये साल का टँगा कलेण्डर कील पुरानी है॥
दीवारों के कील पुराने हमें चिढ़ाते हैं।
दर्द देश का लोग यहाँ क्यों भूले जाते हैं।
मर्यादा की तोड़ के सीमा हम आगे बढ़ते।
फिल्मी तस्वीरें कीलों पर हम लटकाते हैं।
अब देखा है, घर-घर की तो यही कहानी है।
नये साल का टँगा कलेण्डर कील पुरानी है॥
इन कीलों ने अपना तो इतिहास बनाया है।
और यहाँ पर कीलों को हमने तड़पाया है।
चकाचौंध के हम दीवाने है सारे ‘रत्नम’।
किलकारी को कीलों पर हमने लटकाया है।
सबने केवल अपनी-अपनी रीत निभानी है।
नये साल का टँगा कलेण्डर कील पुरानी है॥