खून फिर खून है टपकेगा तो जम जाएगा
तुमने जिस खून को मक्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा–ओ–बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर
खून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते
धड़कने रुकने से अरमान नहीं मर जाते
साँस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते
होंठ जम जाने से फ़रमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
खून अपना हो या पराया हो
नस्ले– आदम का खून है आख़िर
जंग मशरिक में हो या मग़रिब में
अमन–ऐ–आलम का खून है आख़िर
बम घरों पर गिरें या सरहद पर
रूहे–तामीर ज़ख्म खाती है
खेत अपने जले कि औरों के
ज़ीस्त फ़ाकों से तिलमिलाती है
जंग तो खुद ही एक मअसला है
जंग क्या मअसलों का हल देगी
आग और खून आज बख्शेगी
भूख और अहतयाज कल देगी
बरतरी के सुबूत की खातिर
खूँ बहाना ही क्या ज़रूरी है
घर की तारीकियाँ मिटाने को
घर जलाना ही क्या ज़रूरी है
इसलिये, ऐ शरीफ़ इंसानो!
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शम्मां जलती रहे तो बेहतर है
∼ साहिर लुधियानवी
मक्.तल ~ वध स्थल
आईनों ~ कानून
नस्ले– आदम ~ इन्सानों का
मशरिक ~ पूरब
मग़रिब ~ पश्चिम
अमन–ऐ–आलम ~ विश्व शांति
रूहे–तामीर ~ निर्माण की आत्मा
ज़ीस्त ~ जिंदगी
फ़ाका ~ भूख
मअसला ~ समस्या
अहतयाज ~ आवश्यकताएँ
बरतरी ~ बड़प्पन
तारीकियाँ ~ अंधेरे
शम्मां ~ दीपक