जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी का भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में
ये शामें
क्या इनका कोई अर्थ नही?
वे लम्हें, वे सारे सूनेपन के लम्हे
जब मैंने अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएं फैंकी
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे
वे लम्हें
क्या इनका कोई अर्थ नही?
वे घड़ियां, वे बेहद भारी भारी घड़ियां
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नही
जब मैंने झुक कर फिर माथे पे पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नुपुर की मणियां
वे घड़ियां
क्या इनका कोई अर्थ नही ?
ये घड़ियां, ये शामें, ये लम्हें
जो मन पर कोहरे से जमे रहे
निर्मित होने के क्रम से
क्या इनका कोई अर्थ नही?
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नही।
अर्पित है पूजा के फूलों सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत मस्तक हो कर वह कर लेता सहज ग्रहण
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियां
इनमें से क्या है
जिनका कोई अर्थ नही!
कुछ भी तो व्यर्थ नही!