जिसका हमें डर है?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?
क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?
क्या वे खरीद ले जाएंगे
हमारे बच्चों को दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिये?
क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जाएंगे हमारा सोना
हमें दिखलाकर कांच के चमकते टुकड़े?
और हम क्या इसी तरह
पीढ़ी–दर–पीढ़ी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खंडहर
अपने मंदिर मस्जिद गरुद्वारे?