वैसे तो होली पूरे भारत में मनाई जाती है पर अलग-अलग सांस्कृतिक अंचलों की होली की अपनी खासियत है। हां, एक बात जो सभी जगहों की होली में सामान्य है, वह है महिलाओं और पुरुषों के बीच रंग खेलने के बहाने अनूठे विनोदपूर्ण और शरारत से भरे प्रसंग। ये प्रसंग शुरू से होली की पहचान से जुड़े रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि इस मस्ती में नहाने वाले कोई एक धर्म या संप्रदाय के लोग हों। आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की लिखी होली आज भी लोग गाते हैं – “क्यों मोपे रंग की मारे पिचकारी, देखो कुंअर जी दूंगी गारी“।
क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी: बहादुर शाह जफर
क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी,
देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी।
भाग सकूँ मैं कैसे मो से भागा नहीं जात,
ठाड़ी अब देखूं और को सनमुच में आत।
बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने दूँ,
आज फगवा तो सं का था पीठ पकड़ कर लूँ।
जब फागुन रंग झांकते हों,
तब देख बहारें होली की।
जब देख के शोर खड़के हों,
तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों,
तब देख बहारें होली की।
बसंत खेलें इश्क़ की आ प्यारा,
तुम्हीं में चाँद में हूँ ज्यों सितारा।
जीवन के हौज़खाना में रंग मदन भर,
सो रोम रोम चारकिया लाये धरा।
नबी सादे बसंत खेलिए क़ुतुब शाह,
रंगीला हो रिहा तिर्लोक सारा।
ले अबीर और अरगजा भर कर रुमाल,
छिड़कते हैं और उड़ाते हैं गुलाल ।
ज्यों झड़ी हर सू है पिचकारी की धार,
दौड़ती हैं नारों बीजकी की सार।
गुलज़ार खिले हों परियों के,
और मजलिस की तैयारी हो ।
कपड़ों पर रंग के चीतों से,
खुशरंग अजब गुलकारी हो।
bahut hi badhiya sir