मैं दो हूँ
मेरे पेट में पिट्ठू है।
जब मैं दफ्तर में
साहब की घंटी पर उठता बैठता हूँ
मेरा पिट्ठू
नदी किनारे वंशी बजाता रहता है!
जब मेरी नोटिंग कट–कुटकर रिटाइप होती है
तब साप्ताहिक के मुखपृष्ठ पर
मेरे पिट्ठू की तस्वीर छपती है!
शाम को जब मैं
बस के फुटबोर्ड पत टँगा–टँगा घर आता हूँ
तब मेरा पिट्ठू
चाँदनी की बाहों में बाहें डाले
मुगल–गार्डन में टहलता रहता है!
और जब मैं बच्चे ही दवा के लिये
‘आउट डोर वार्ड’ की क्यू में खड़ा रहता हूँ
तब मेरा पिट्ठू
कवि सम्मेलन में मंच पर पुष्पमालाएँ पहनता है!
इन सरगर्मियों से तंग आकर
मैं अपने पिट्ठू से कहता हूँ
भाई, यह ठीक नहीं
एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहतीं
तो मेरा पिट्ठू हँस कर कहता हैः
पर एक जेब में दो कलमें तो सभी रखते हैं!
तब मैं झल्लाकर आस्तीनें चढ़ाकर
अपने पिट्ठू को ललकारता हूँ–
तो फिर जा, भाग जा, मेरा पिंड छोड़,
मात्र कलम बनकर रहा!
और यह सुन कर वह चुपके से
मेरे सामने गीता की कॉपी रख देता है!
और जब मैं
हिम्मत बाँधकर
आँख मींचकर मुट्ठियाँ भींचकर
तय करता हूँ कि अपनी देह उसी को दे दूँगा
तब मेरा पिट्ठू
मुझे झकझोरकर
‘एफीशिएंसी बार’ की याद दिला देता है!
एक दिखने वाली मेरी इस देह में
दो “मैं” हैं।
एक मैं और एक मेरा पिट्ठू।
मैं तो खैर मामूली सा क्लर्क हूँ
पर मेरा पिट्ठू
वह जीनियस है!