वह प्रदीप जो दीख रहा है
झिलमिल दूर नहीं है।
थक कर वैठ गये क्या भाई !
मंजिल दूर नहीं है।
अपनी हड्डी की मशाल से
हृदय चीरते तम का‚
सारी रात चले तुम दुख –
झेलते कुलिश निर्मल का‚
एक खेय है शेष
किसी विध पार उसे कर जाओ‚
वह देखो उस पार चमकता है
मंदिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे‚
वह सच्चा शूर नहीं है।
थक कर वैठ गये क्या भाई !
मंजिल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर
पुण्य प्रकाश तुम्हारा‚
लिखा जा चुका अनल अक्षरों में
इतिहास तुम्हारा‚
जिस मिट्टी ने लहू पिया
वह फूल खिलाएगी ही‚
अंबर पर धन बन छायेगा
ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अथिक ले जांच‚
देवता इतना क्रूर नहीं है।
थक कर वैठ गये क्या भाई !
मंजिल दूर नहीं है।