इसकी बड़ी मज़ेदार कहानी है। मनोज के कहने पर गीतकार वर्मा मलिक ने महंगाई पर एक गाना लिखा। गाना क्या कव्वाली बन गयी। उसे पहले तो पढ़ कर सब हंसे। कंटेंट पर भी और इस पर भी क्या यह फिल्माने योग्य गाना है? वर्मा मलिक ने मनोज को कन्विंस किया कि इसमें हिट होने की पर्याप्त गुंजाईश है।
रेकॉर्डिंग शुरू हुई। लता जी का मारे हंसी बुरा हाल। कहां से शुरू और बीच में कहां बहक जाता है गाना। दूसरे गायक मुकेश, चंचल और जानी बाबी कव्वाल भी कतई सीरियस नहीं थे। संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को भी इसमें कुछ दम नहीं दिखा।
जैसे-तैसे गाना रिकॉर्ड हुआ। फिल्मांकन के समय भी आर्टिस्ट मौशमी चैटर्जी और प्रेमनाथ का भी हंस-हंस कर बुरा हाल। यह कैसा गाना है यार? कैसा रिस्पॉन्स मिलेगा पब्लिक का? लेकिन जैसे ही सब स्टूडियो से बाहर निकले तो सुना क्या?
यूनिट के जूनियर आर्टिस्ट से लेकर स्पॉट बॉय तक हर छोटा आदमी गुनगुनाते हुए मिला – बाक़ी जो बचा था महंगाई मार गयी।
और फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले ही सुपर-हिट हो गया यह गाना। तिस पर ऐसा माहौल कि महंगाई और अराजकता से परेशान जन-जनार्दन की आवाज़ बन गया यह गाना। हर गली-कूचे में छा गया। भारत सरकार भी परेशान हो उठी। कुछ अरसे तक प्रतिबंधित भी रहा। इसकी लंबाई भी नहीं अखरी किसी को। पेश है गाना –
उसने कहा तू कौन है, मैंने कहा उल्फ़त तेरी
उसने कहा तकता है क्या, मैंने कहा सूरत तेरी
उसने कहा चाहता है क्या, मैंने कहा चाहत तेरी
मैंने कहा समझा नहीं, उसने कहा क़िस्मत तेरी
एक हमें आँख की लड़ाई मार गई
दूसरी तो यार की जुदाई मार गई
तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई
चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई
बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई
तबीयत ठीक थी और दिल भी बेक़रार ना था
ये तब की बात है जब किसी से प्यार ना था
जब से प्रीत सपनों में समाई मार गई
मन के मीठे दर्द की गहराई मार गई
नैनों से नैनों की सगाई मार गई
सोच सोच में जो सोच आई मार गई,
बाकी कुछ बचा …
कैसे वक़्त में आ के दिल को दिल की लगी बीमारी
मंहगाई की दौर में हो गई मंहगी यार की यारी
दिल की लगी दिल को जब लगाई मार गई
दिल ने की जो प्यार तो दुहाई मार गई
दिल की बात दुनिया को बताई मार गई
दिल की बात दिल में जो छुपाई मार गई,
बाकी कुछ बचा …
पहले मुट्ठी विच पैसे लेकर
पहले मुट्ठी में पैसे लेकर थैला भर शक्कर लाते थे
अब थैले में पैसे जाते हैं मुट्ठी में शक्कर आती है
हाय मंहगाई महंगाई …
दुहाई है दुहाई मंहगाई महंगाई …
तू कहाँ से आई, तुझे क्यों मौत ना आई, हाय महंगाई ..
शक्कर में ये आटे की मिलाई मार गई
पौडर वाले दुद्ध दी मलाई मार गई
राशन वाली लैन दी लम्बाई मार गई
जनता जो चीखी चिल्लाई मार गई,
बाकी कुछ बचा …
गरीब को तो बच्चों की पढ़ाई मार गई
बेटी की शादी और सगाई मार गई
किसी को तो रोटी की कमाई मार गई
कपड़े की किसी को सिलाई मार गई
किसी को मकान की बनवाई मार गई
जीवन दे बस तिन्न निसान – रोटी कपड़ा और मकान
ढूंढ ढूंढ के हर इन्सान
खो बैठा है अपनी जान
जो सच सच बोला तो सच्चाई मार गई
और बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई …
∼ वर्मा मलिक
चित्रपट: रोटी कपड़ा और मकान (१९७४)
निर्माता, निर्देशक, लेखक: मनोज कुमार
गीतकार: वर्मा मलिक
संगीतकार: लक्ष्मीकांत प्यारेलाल
गायक: लता मंगेशकर, मुकेश, नरेंद्र चंचल, जानी बाबू क़व्वाल
सितारे : मनोज कुमार, शशि कपूर, अमिताभ बच्चन, ज़ीनत अमान, मौसमी चटर्जी, प्रेमनाथ