न होता कहीं सावन, न होता कहीं उपवन,
न होता कहीं समर्पण, न होता कहीं आलिंगन।
न होती कहीं रुठन, न होती कहीं अड़चन,
न होती कहीं अनबन, न होती कहीं मनावन।
न खिलते कहीं फूल, न होते कहीं शूल,
न होती कहीं अमराई, न मन लेता अंगड़ाई।
न बदरा बनते बौझार, न झरना देता फुहार,
न कोहरा बनता धुंध, न प्रेमी लिपटते निर्दवन्द।
न सपर्श होता कोमल, न जलधार होती निर्मल,
न नृत्य करता मयूर, न कोयल गाती भरपूर।
न होती कोई आस्था, न मानता कोई प्रेम की व्यथा,
न बजती कोई बाँसुरी, छा जाती शक्तियाँ आसुरी।
न प्रकृति करती श्रँगार, न फूट पड़ते उद्गार,
न माझी सुनाता मल्हार, न बृह्म होता निराकार।