नींद भी न आई (तुक्तक) – भारत भूषण अग्रवाल

नींद भी न आई, गिने भी न तारे
गिनती ही भूल गए विरह के मारे
रात भर जाग कर
खूब गुणा भाग कर
ज्यों ही याद आई, डूब गए थे तारे।

यात्रियों के मना करने के बावजूद गये
चलती ट्रेन से कूद गये
पास न टिकट था
टीटी भी विकत था
बिस्तर तो रह ही गया, और रह अमरुद गये।

देश में आकाल पड़ा, अनाज हुआ महंगा
दादी जी ने गेंहू लिया बेच के लहंगा
लेने गयी चक्की
पड़ोसन थी नक्की
कहने लगी, यहाँ नहीं हैंगा।

तीन गुण विशेष हैं कागज़ के फूल में
एक तो वह कभी नहीं लगते हैं धूल में
दूजे वह खिलते नहीं
कांटे भी लगते नहीं
चाहे हम उनको लगा लें बबूल में।

∼ भारत भूषण अग्रवाल

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