निदा फ़ाज़ली के दोहे

निदा फ़ाज़ली के दोहे

युग युग से हर बाग का, ये ही एक उसूल
जिसको हँसना आ गया, वो ही मट्टी फूल।

पंछी, मानव, फूल, जल, अलग–अलग आकार
माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार।

बच्चा बोला देख कर, मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान।

अन्दर मूरत पर चढ़े घी, पूरी, मिष्टान
मंदिर के बाहर खड़ा, ईश्वर माँगे दान।

आँगन–आँगन बेटियाँ, छाँटी–बाँटी जाएँ
जैसे बालें गेहूँ की, पके तो काटी जाएँ।

घर को खोजे रात–दिन, घर से निकले पाँव
वो रस्ता ही खो गया, जिस रस्ते था गाँव।

सब की पूजा एक सी अलग–अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत।

माटी से माटी मिले, खो कर सभी निशान
किस में कितना कौन है, कैसे हो पहचान।

सात समंदर पार से, कोई करे व्यापार
पहले भेजे सरहदें, फिर भेजें हथियार।

जीवन के दिन रैन का, कैसे लगे हिसाब
दीमक के घर बैठ कर, लेखक लिखे किताब।

ऊपर से गुड़िया हँसे, .अंदर पोलमपोल
गुड़िया से है प्यार तो, टाँको को मत खोल।

मुझ जैसा इक आदमी, मेरा ही हमनाम
उल्टा–सीधा वो चले, मुझे करे बदनाम।

∼ निदा फ़ाज़ली

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