माँ मेरी, माँ मेरी, भाई से भाई कहाँ कहते है।
कभी ख्वाइशें आकर, सीने से लिपटती थी,
सुने शजर की तरह, अब घर में बुजुर्ग रहते है।
न बरकत, न उस घर में खुशियाँ रहती है
भाई-भाई जहाँ आँगन में दिवार रखते है।
कोई अखबार बेचने, कोई कारखाने गया,
गरीबो के बच्चे, जिमेदारियाँ समझते है।
परदेश पढ़ने गए बेटे, लौट के घर आये नही,
घर, जर, जमीं सब साहूकारो के रहन रहते है।
दोस्त हक़ की बात भी हक़ में नहीं बोलते
सोहरत के काँटे, रिश्तों को चुभने लगते है।
मुफलिसी ता’उम्र, इक छत को तरसती है
मस्जिदों में खुदा, मंदिरो में भगवान रहते है।
मुझको इंसानो में, इंसान भी नहीं मिलते,
और लोगो को पत्थरो में भगवान दिखते है।
~ संजय शर्मा
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