सागर के वक्ष पर: स्वामी विवेकानंद जी
नील आकाश में बहते हैं मेघदल,
श्वेत कृष्ण बहुरंग,
तारतम्य उनमें तारल्य का दीखता,
पीत भानु-मांगता है विदा,
जलद रागछटा दिखलाते।
बहती है अपने ही मन से समीर,
गठन करता प्रभंजन,
गढ़ क्षण में ही, दूसरे क्षण में मिटता है,
कितने ही तरह के सत्य जो असम्भव हैं –
जड़ जीव, वर्ण तथा रूप और भाव बहु।
आती वह तुलाराशि जैसी,
फिर बाद ही लखो महानाग,
देखो विक्रम दिखाता सिंह,
लखो युगल प्रेमियों को,
किन्त मिल जाते सब
अन्त में आकाश में।
नीचे सिन्धु गाता बहु तान,
महीमान किंतु नहीं वह,
भारत, तुम्हारी अम्बुराशि विख्यात है,
रूप-राग जलमय हो जाते हैं,
गाते हैं यहाँ किन्तु
करते नहीं गर्जन।
~ स्वामी विवेकानंद
‘सागर के वक्ष पर’ स्वामीजी की बांग्ला कविता, ‘सागरे वक्षे’ का अनुवाद है। नीचे हम अँग्रेज़ी कविता भी प्रकाशित कर रहे हैं ताकि आप इसे भी पढ़ सकें।
Vivekananda founded the Ramakrishna Math and the Ramakrishna Mission. He is perhaps best known for his speech which began, “Sisters and brothers of America …,” in which he introduced Hinduism at the Parliament of the World’s Religions in Chicago in 1893.
On the Sea’s Bosom: Swami Vivekananda
In blue sky floats a multitude of clouds –
White, black, of many shades and thicknesses;
An orange sun, about to say farewell,
Touches the massed cloud-shapes with streaks of red.
The wind blows as it lists, a hurricane
Now carving shapes, now breaking them apart:
Fancies, colors, forms, inert creations –
A myriad scenes, though real, yet fantastic.
There light clouds spread, heaping up spun cotton;
See next a huge snake, then a strong lion;
Again, behold a couple locked in love.
All vanish, at last, in the vapory sky.
Below, the sea sings a varied music,
But not grand, O India, nor ennobling:
Thy waters, widely praised, murmur serene
In soothing cadence, without a harsh roar.
~ Swami Vivekananda
Bahut hi badhiya post aapne share kiya hain Thanks.
स्वामी विवेकानंद पर कविता – आओ सूरज को दिया दिखाएं