सुख गयी हैं झीलें,
दरक गयी उपजाऊ भूमि,
ताल रहे न गिले।
नदियों, कुओं, तालाबों से,
रूठ गया है पानी,
कहते हैं कुछ समझदार,
ये है अपनी नादानी।
पर्यावरण बिगाड़ा हमने,
हरे पेड़ काटे हैं,
पंछी का दाना छिना है,
दुःख सबको बांटें हैं।
अभी वक़्त है, वर्षा के,
जल को चलो सहेजें,
खेतों में लहरायें फसलें,
इतना पानी भेजें।