आज कज्जल अश्रुओं में, रिम झिमा ले यह घिरा घन
और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ पलक रूखे
आर्द्र चितवन में यहां
शत विद्युतों में दीप खेला
पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला।
अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे
दुखव्रती निर्माण उन्मद
यह अमरता नापते पग
बांध देंगे अंक संसृति
से तिमिर में स्वर्ण वेला
पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला।
दूसरी होगी कहानी
शून्य मे जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी
आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ
चिनगारियों का एक मेला
पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला।
हास का मधु दूत भेजो
रोष की भ्रू भंगिमा पतझार को चाहे सहेजो
ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना जल स्वप्न शतदल
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला
पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला।