बाल-कविता [6] – पिता: संतोष शैलजा
आज है जलती हुई चिता
परसों-बस इक कथा
फिर-एक दिन
हर पल
अंतर्मन में सुलगती व्यथा
स्मृतियों के अगणित झाड़
कांटों-सी टीसती बातें –
“बेटा! तू आ गया!
बहुत अच्छा किया!
कितनी छुट्टी है?
कुछ दिन रहेगा न?
जल्दी मत चले जाना”
घर की देहरी पर
यह लाड़-मनुहार
उन धुंधली आँखों की
पनीली चमक
उन दुबले हाथों का
पीठ पर मृदु स्पर्श
उस कृशकाय वक्ष का
उष्ण आलिंगन
भर देता जो मेरा तन-मन
आज अश्रु पूछ रहे झर झर
“कौन सहेजेगा तब मुझे
जल लौटूंगा मैं
परदेश से घर?”
बाल-कविता [7] – बेटी: संतोष शैलजा
आज तू गई बेटी!
चली गई तेरे साथ ही
घर की चहल-पहल
हंसी की फुहारें
रसीली बातों के पिटारे
वह बात बात पर खिलखिलाना
कभी रूठना, कभी मान जाना
तब हर घड़ी महकती थी रसोई
तेरे मनभावन खाने की
सुगंध
जगती बीते दिनों की याद
खुली फिजाओ में
लहराती हवाओ में
उड़ती रही तुम
मैं भी संग-संग
तिनका भी उड़ चला
जैसे हवा के संग
इन कुछ दिनों में
पार कर ली हमने
उम्र की कई मंजिलें
जी लिए जैसे कई बरस
धुल गए धूल भरे नयन
कुंदन-सी दमक उठी मैं
पाकर तेरा पारस-परस
आज तू विदा हुई तो –
विदा हुए
सब रूप रंग
हंसी की फुलझड़ियां
गीतों की लड़ियां और
मां-बेटी की गलबहियां!