श्वासों की तुम संग प्रीत लगी है
तुमको लेकर बात बढ़ी है
तुम बिन चॆन कहां से पाऊँ
प्रिय कैसे, फिर तुम्हें मनाऊँ।
चितवन ऐसी खिली कली सी
स्वर लहरी है जल – तरंग सी
नयनों की झपकी, साझं ढली सी
बिछड़ा सावन कहाँ से लाऊँ
प्रिय कैसे, फिर तुम्हें मनाऊँ।
नेह मधुर है, स्पर्श है कोमल
धरती पर छाया स्वर्ग सा उपवन
गंगा की पूजित धारा सा निर्मल
तुम सा साथी कित ढूणू, कित पाऊं
प्रिय कैसे, फिर तुम्हें मनाऊँ।
जो तुम होती मेरी बगिया में
खिलते फूलों के संग खिलता
जो, पत – झड़ आता जीवन में
उसे ही नियति के नियम सा लेता
पर यह पत – झड़ कैसे दूर भगाऊँ
प्रिय, कैसे फिर तुम्हें मनाऊँ।
तुम रुठे हो, रूठा जग सारा
कोई भी जग में, लगता नहीं प्यारा
उग आया सूरज पर सुबह नहीं है
तन में उर्जा कहाँ से पाऊँ
प्रिय कैसे, फिर तुम्हें मनाऊँ।