सौ–सौ यादगारों का पिटारा खोलता है।
मीत कोई दूर का, बिछड़ा हुआ सा,
पास आता है, लिपटता, बोलता है।
कान में कुछ फुसफुसाता है,
हृदय का भेद कोई खोलता है।
हर पुरान पत्र है इतिहास
आँसू या हँसी का
चाँदनी की झिलमिलाहट
या अन्धेरे की घड़ी का
आस का, विश्वास का,
या आदमी की बेबसी का।
ये पुराने पत्र
जीवन के सफर के मील के पत्थर समझ लो
मर चुका जो भाग जीवन का
उसी के चिन्ह ये अक्षर समझ लो
आप, तुम या तू,
इन्हीं संबोधनों ने स्नेह का आँचल बुना है।
स्नेह – यह समझे नहीं तो
क्या लिखा है? क्या पढ़ा है? क्या गुना है?
ये पुराने पत्र
जैसे स्नेह के पौधे बहुत दिन से बिना सींचे पड़े हों।
काल जिनके फूल–फल सब चुन गया है,
इन अभागों को भला अब कौन सींचे!
रीत यह संसार की सदियों पुरानी,
इन पुरानी पातियों का क्या करूँ फिर?
क्या जला दूँ पातियाँ ये?
जिंदगी के गीत की सौ–सौ धुनें जिनमें छिपी हैं।
फूँक दूँ यह स्वर्ण? लेकिन सोच लूँ फिर,
भस्म इसकी और भी मँहगी पड़ेगी।
तब? जलाऊँगा नहीं मैं पातियाँ ये।
जिंदगी भर की सँजोई थातियाँ ये।
साथ ही मेरी चिता के
ये जलेंगी।