एक बूंद: अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

पुरबा जो डोल गई: शिवबहादुर सिंह भदौरिया

भदौरिया जी का जन्म 15 जुलाई सन 1927 को ग्राम धन्नीपुर रायबरेली उत्तर प्रदेश में हुआ था। ‘हिंदी उपन्यास सृजन और प्रक्रिया’ पर कानपुर विश्व विद्यालय ने उन्हें पीएच.डी. की उपाधि से अलंकृत किया था। 1967 से 1972 तक बैसवाड़ा स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी प्रवक्ता से लेकर विभागाध्यक्ष तक के पदों पर रहे। 1988 में कमला नेहरु स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य पद पर रहते हुए सेवा-निवृत्त हुए। हिंदी कविता जब आंदोलनों के दौर से गुज़र रही थी, तब गीतकारों को भी महसूस हुआ की हिंदी गीत को ‘प्रेयसी की ज़ुल्फ़’ से बाहर निकल कर गीत को यथार्थ के धरातल से जोड़ा जाय। गीत आम आदमी के मन की बात को भी अभिव्यक्त करे। यहीं से हिंदी नवगीत का विकास शुरू हुआ। डॉ भदौरिया का प्रथम संकलन ‘शिन्जनी’ 1953 में प्रकाशित हुआ था। ठीक एक वर्ष बाद ‘धर्मयुग’ में उनका एक गीत छपा ‘पुरवा जो डोल गई’। यहीं से डॉ भदौरिया को एक बेहतरीन गीतकार के रूप में स्वीकार किया जाने लगा। कानपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल डॉ. भदौरिया के अन्य संकलन हैं – माध्यम और भी, लो इतना जो गाया, पुरवा जो डोल गई आदि।

पुरबा जो डोल गई ~ शिवबहादुर सिंह भदौरिया

Purbaa (eastern winds) is the harbinger of rains to follow and that changes the atmosphere in a village. This is beautifully depicted in this lovely poem of  Shiv Bahadur Singh Bhadauria. Pure rural ethos of the words is exhilarating!

घटा घटा आँगन में जूड़े से खोल गई।
बूँदों का लहरा दीवारों को चूम गया
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया
श्याम रंग परियों से अंतर है घिरा हुआ
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ
मइया के मंदिर में
अम्मा की मानी हुई
डुग डुग डुग डुग डुग बधइया फिर बोल गई।

बरगद की जड़ें पकड़ चरवाहे झूल रहे
विरहा की तानों में विरहा सब भूल रहे
अगली सहालक तक ब्याहों की बात टली
बात बहुत छोटी पर बहुतों को बहुत खली
नीम तले चौरा पर
मीरा की बार बार
गुड़िया के ब्याह वाली चर्चा रस घोल गई।

खनक चूड़ियों की सुनी मेंहदी के पातों ने
कलियों पे रंग फेरा मालिन की बातों ने
घानों के खेतों में गीतों का पहरा है
चिड़ियों की आँखों में ममता का सेहरा है
नदिया से उमक उमक
मछली वह छमक छमक
पानी की चूनर को दुनिया से मोल गई।

झूले के झुमके हैं शाखों के कानों में
शबनम की फिसलन है केले की रानों में
ज्वार और अरहर की हरी हरी सारी है
शनई के फूलों का गोटा किनारी है
गाँवों की रौनक है
मेहनत की बाहों में
धोबिन भी पाटे पर हइया हू बोल गई।

पुरबा जो डोल गई।

∼ शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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