रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध कविताओं का हिंदी अनुवाद: बचपन से ही रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूँकने वाले युगदृष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। देश और विदेश के सारे साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि उन्होंने आहरण करके अपने अन्दर समेट लिए थे। पिता के ब्रह्म-समाजी के होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी थे। पर अपनी रचनाओं व कर्म के द्वारा उन्होंने सनातन धर्म को भी आगे बढ़ाया।
मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं के अन्दर वह अलग-अलग रूपों में उभर आता है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई शाखा हो, जिनमें उनकी रचना न हो – कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला – सभी विधाओं में उन्होंने रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियों में – गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अंग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा पूरे विश्व में फैली।
धीरे चलो, धीरे बंधु: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
धीरे चलो, धीरे बंधु, लिए चलो धीरे।
मंदिर में, अपने विजन में।
पास में प्रकाश नहीं, पथ मुझको ज्ञात नहीं।
छाई है कालिमा घनेरी।।
चरणों की उठती ध्वनि आती बस तेरी
रात है अँधेरी।।
हवा सौंप जाती है वसनों की वह सुगंधि,
तेरी, बस तेरी।।
उसी ओर आऊँ मैं, तनिक से इशारे पर,
करूँ नहीं देरी!!
मूल बांगला से अनुवाद: प्रयाग शुक्ल
झर झर झर जल झरता है: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
झर झर झर जल झरता है, आज बादरों से।
आकुल धारा फूट पड़ी है नभ के द्वारों से।।
आज रही झकझोर शाल-वन आँधी की चमकार।
आँका-बाँका दौड़ रहा जल, घेर रहा विस्तार।।
आज मेघ की जटा उड़ाकर नाच रहा है कौन।
दौड़ रहा है मन बूँदों-बूँदों अँधड़ का सह भार।
किसके चरणों पर जा गिरता ले अपना आभार।।
द्वारों की साँकल टूटी है, अंतर में है शोर,
पागल मनुवा जाग उठा है, भादों में घनघोर।
भीतर-बाहर आज उठाई,किसने यह हिल्लोर।।
मूल बांगला से अनुवाद: प्रयाग शुक्ल
आज दखिन पवन: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
आज दखिन पवन।
झूम उठा पूरा वन।।
बजे नूपुर मधुर दिक ललना के सुर।
हुआ अंतर भी तो आज रुनझुन।।
लता माधवी की हाय
आज भाषा भुलाए
रहे पत्ते हिलाए करे वंदन।।
पंख अपने उड़ाए, चली तितली ये जाए,
देने उत्सव का देखो, निमंत्रण