टूटे से फिर ना मिले‚ मिले गांठ पड़ जाय।
रहीम कहते हैं कि प्रेम का धागा न तोड़ो। टूटने पर फिर नहीं जुड़ेगा और जुड़ेगा तो गांठ पड़ जाएगी।
गही सरनागति राम की‚ भवसागर की नाव
‘रहिमन’ जगत–उधार को‚ और न कोऊ उपाय
राम नाम की नाव ही भवसागर से पार लगाती है। उद्धार का और कोई उपाय नहीं है।
जो गरीब तों हित करें‚ धनी ‘रहीम’ ते लोग
कहा सुदामा बापुरो‚ कृष्ण–मिताइ–जोग
जो गरीबों का हित करते है वही धन्य हैं। वरना गरीब सुदामा क्या श्री कृष्ण की मित्रता के योग्य था?
‘रहिमन’ बात अगम्य की‚ कहिन सुनन की नाहिं
जे जानत ते कहत नहिं‚ कहत ते जानत नाहिं।
रहीम कहते हैं कि सत्य ह्यभगवानहृ का वर्णन नहीं किया जा सकता। जो जानते हैं वे कहते नहीं और जो कहते हैं वे जानते नहीं।
‘रहिमन’ कठिन चितान तै‚ चिंता को चित चैत
चिता दहति निर्जीव को‚ चिंता जीव समेत
रहीम कहते हैं कि चिंता चिता से भयंकर है। चिता निर्जीव को जलाती है पर चिंता जिंदा ही जलाती है।
‘रहिमन’ विपदाहू भली जो‚ थोरे दिन होय
हित अनहित या जगत में‚ जानि परत सब कोय
रहीम कहते हैं कि विपत्ति अच्छी है कि थोड़े समय को आती है। पर हित करने वालों की ह्यमित्रों कीहृ और अनहित करने वालों की ह्यशत्रुओं कीहृ पहचान करवा देती है।
ज्यों नाचत कठपूतरी‚ करम नचावत गात
अपने हाथ रहीम ज्यों‚ नहीं आपने हाथ।
जैसे नट कठपुतली को नचाता है‚. कर्म मनुष्य को नचाते हैं। होनी अपने हाथ में नहीं होती।
‘रहिमन’ देखि बड़ेन को‚ लघु न दीजिये डारि
जहां काम आवे सूई‚ कहां करे तरवारि।
रहीम कहते हैं कि बड़ी वस्तु मिल जाने पर छोटी चीज का त्याग नहीं करना चाहिये। जहां सूई काम आती है वहां तलवार क्या करेगी?
जो बड़ेन को लघु कहें‚ नहिं रहीम घटि जाहिं
गिरिधर मुरलीधर कहे‚ कछु दुख मानत नाहिं।
बड़े को छोटा कह देने से वह छोटा नहीं हो जाता। गिरिधर श्री कृष्ण मुरलीधर कहलाने पर बुरा नहीं मनते।
दीन सबन को लखत हैं‚ दीनहिं लखे न कोय
जो ‘रहीम’ दीनहिं लखौ‚ दीन बंधु सम होय।
गरीब सभी का मुहं ताकते हैं पर गरीबों को कोई नहीं देखता। जो गरीबों का ध्यान रखते हैं वे दीनबंधु जैसे होते हैं।
पावस देखि ‘रहीम’ मन‚ कोइल साधे मौन
अब दादुर वक्ता भये‚ हमको पूछत कौन।
रहीम कहते हैं कि वर्षा आने पर कोयल चुप हो जाती है। यह सोच कर कि अब तो मेढकों के बोलने का जमाना है हमें कौन पूछेगा।
बिगरी बात बनै नहीं‚ लाख करो किन कोय
‘रहिमन’ फाटे दूध को‚ मथे न माखन होय
रहीम कहते हैं कि बिगड़ी बात बनती नहीं जैसे कि फटे दूध को मथने से मक्खन नहीं बनता।
‘रहिमन’ ओछे नरन सों‚ बैर भलो ना प्रीत
काटे चाटे स्वान के‚ दोउ भांति विपरीत।
रहीम कहते हैं कि ओछे लोगों से न प्रीत अच्छी न दुशमनी। जैसे कि कुत्ता प्यार में मुहं चाटता है वरना काटता है।
एकै साधे सब सधै‚ सब साधे सब जाय
‘रहिमन’ मूलहिं सींचिबो‚ फूलहि फलहि अघाय।
रहीम कहते हैं कि एक काम हाथ में लेकर पूरा करना चाहिये। बहुत से काम एक साथ करने पर कोई भी ठीक नहीं होता। पेड़ के मूल को सीचना पर्याप्त है उसी से सब फल फूल आ जाते हैं।
जो ‘रहीम’ ओछे बढ़े‚ तो अति ही इतराय
पयादे से फरजी भयो‚ टेढ़ो टेढ़ो जाय।
रहीम कहते हैं कि ओछे व्यक्ति की तरक्की हो तो वह बहुत ही इतराता है। जैसे कि शतरंज में जब प्यादा वज़ीर बनता है तो टेढ़ा टेढ़ा चलता है।
बड़े बड़ाई ना करैं‚ बड़ो न बोले बोल
‘रहिमन’ हीरा कब कहे‚ लाख टका मम मोल।
रहीम कहते हैं कि बड़े व्यक्ति अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करते। हीरा कब कहता है कि मेरा मूल्य एक लाख रुपय है?
तरुवर फल नहीं खात हैं‚ सरवर पियहिं न पान
कहि ‘रहीम’ परकाज हित‚ संपत्ति संचहि सुजान
रहीम कहते हैं कि पेड़ अपने फल स्वयं नहीं खाता और सरोवर अपना पानी स्वयं नहीं पीता। ऐसे ही सज्जन धन दूसरों के उपकार के लिये ही जोड़ते हैं।
समय पाय फल होत है‚ समय पात झर जाय
सदा रहै नहीं एक सी‚ का ‘रहीम’ पछताय।
रहीम कहते हैं कि समय आने पर पेड़ में फल लगते हैं और फिर समय पर झड़ जाते हैं। सदा एक सा समय नहीं रहता इसमे पछताना क्या।
‘रहिमन’ चुप हो बैठिये‚ देखि दिनन को फेर
जब नीकै दिन आइहैं‚ बनत न लगिहैं देर।
रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर शांति से सहना चाहिये। जब अच्छा समय आयगा तो काम बनते देर नहीं लगेगी।
राम न जाते हरिन संग‚ सीय न रावन साथ
जो ‘रहीम’ भावी कतहुं‚ होत आपने हाथ।
रहीम कहते हैं कि होनी को कौन टाल सकता है। वरना क्यों राम सोने के हिरन के पीछे जाते और क्यों रावण सीता का हरण करता।
‘रहिमन’ वे नर मर चुके‚ जे कहुं मांगन जाहिं
उनते पहले वे मुए‚ जिन मुख निकसत नाहिं।
रहीम कहते हैं कि जो लोग किसी से कुछ मांगते हैं वे मृत समान हैं। पर जो मांगने से भी नहीं देते वे तो पहले से ही मरे हुए हैं।
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन।
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम।
गरज आपनी आप सों रहिमन कहीं न जाया
जैसे कुल की कुल वधू पर घर जात लजाया।
छमा बड़न को चाहिये, छोटन को उत्पात
कह ‘रहीम’ हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात।
खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय।
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग।
जे गरीब सों हित करै, धनि रहीम वे लोग
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि।
खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान।
टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार।
आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि।
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह।
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि।
माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि।
रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि
उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि।
रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय।
रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर।
बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय।
मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय
फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय।
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग
बाँटनवारे को लगै, ज्यौं मेंहदी को रंग।
रहिमह ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत।
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।