We humans see the world and interpret it as per our mental capacities. We try to make a sense out of this world by giving many hypotheses. But reality remains beyond us, a matter of constant speculation.
चरणों में नित बैठ नाम का जप करता हूँ
मैं हीं सिक्का खरा, कभी मैं ही हूँ खोटा
मेरे ही कर्मों का रखते लेखा-जोखा
मैं ही गोते खा-खा कर फिर-फिर तरता हूँ
चक्र आपका, जी-जी कर फिर-फिर मरता हूँ
जीवन की नैया पर, कर्मों के सागर से
जूझा मैं ही पाप-पुण्य की पतवारों से
और कभी फिर बैरागी बन, हाथ जोड़ कर
झुक-झुक कर मैं ही निज मस्तक को धरता हूँ
गौतम, कपिल, शंकरा मैं, मैं ही जाबाली
चारवाक मैं, ईसा मैं, मैं ही कापालिक
विस्मित हो लखता हूँ मैं अगिनित रूपों को
भांति-भांति से फिर उनका वर्णन करता हूँ
मंदिर में, मस्जिद में, गिरजों, गुरूद्वारों में
युग-युग से मानव के अगिनित अवतारों में
ध्यान-मग्न हो चिंतंन के अदभुद रंगों से
मैं ही हूं प्रभु, नित्य आपको जो रचता हूं