तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोए हो?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में
तुम भी क्या घर भर पेट बाँधकर सोये हो?
असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में
क्या अनायास जल में बह जाते देखा है?
‘क्या खायेंगे?’ यह सोच निराशा से पागल
बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?
देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को,
जिन की आभा पर धूल अभी तक छाई है?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक
रेशम क्या, साड़ी सही नहीं चढ़ पायी है।
पर, तुम नगरों के लाल, अमीरी के पुतले,
क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?
जलता हो सारा देश, किन्तु होकर अधीर
तुम दौड़–दौड़ कर क्यों यह आग बुझाओगे?
चल रहे ग्रामकुंजों में पछिया के झकोर
दिल्ली लेकिन ले रही लहर पुरवाई में।
है विकल देश सारा अभाव के तापों से
दिल्ली सुख से सोई है नरम रजाई में।
क्या कुटिल व्यंग्य! दीनता वेदना से अधीर
आशा से जिन का नाम रात–दिन जपती है,
दिल्ली के वे देवता रोज कहते जाते,
कुछ और धरो धीरज, किस्मत अब छपती है।
हिल रहा देश कुत्सा के जिन आघातों से,
वे नाद तुम्हें ही नहीं सुनाई पड़ते हैं?
निर्माणों के प्रहरियो! तुम्हें ही चोरों के
काले चेहरे क्या नहीं दिखाई पड़ते हैं?
तो होश करो दिल्ली के देवो, होश करो,
सब दिन तो यह मोहिनी न चलने वाली है;
होती जाती है गर्म दिशाओं की साँसें,
मिट्टी फिर कोई आग उगलने वाली है।
हो रहीं खड़ी सेनाएँ फिर काली–काली
मेघों से उभरे हुए नये गजराजों की,
फिर नये गरुड़ उड़ने को पाँखें तोल रहे
फिर झपट झेलनी होगी नूतन बाज़ों की।
वृद्धता भले बँध रहे रेशमी धागों से
साबित इनको पर नहीं जवानी छोड़ेगी;
जिन के आगे झुक गये सिद्धियों के स्वामी,
उस जादू को कुछ नई आँधियाँ तोड़ेंगी।