विस्तृत वसुधा के कण-कण में,
उन किरणों के अस्ताचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने।
साथी, साँझ लगी अब होने!
खेल रही थी धूलि कणों में,
लोट-लिपट गृह-तरु-चरणों में,
वह छाया, देखो जाती है प्राची में अपने को खोने।
साथी, साँझ लगी अब होने!
मिट्टी से था जिन्हें बनाया,
फूलों से था जिन्हें सजाया,
खेल-घरौंदे छोड़ पथों पर चले गए हैं बच्चे सोने।
साथी, साँझ लगी अब होने!