साकेत: अष्टम सर्ग – मैथिली शरण गुप्त

तरु–तले विराजे हुए, शिला के ऊपर,
कुछ टिके, –घनुष की कोटि टेक कर भू पर,
निज लक्ष–सिद्धि–सी, तनिक घूमकर तिरछे,
जो सींच रहीं थी पर्णकुटी के बिरछे।

उन सीता को, निज मूर्तिमती माया को,
प्रणयप्राणा को और कान्तकाया को,
यों देख रहे थे राम अटल अनुरागी,
योगी के आगे अलख–जोति ज्यों जागी।

अंचल–पट कटि में खोंस, कछोटा मारे,
सीता माता थीं आज नई छवि धारे।
थे अंकुर–हितकर कलश–पयोधर पावन,
जन–मातृ–गर्वमय कुशल वदन भव–भावन।

पहने थीं दिव्य दुकूल अहा! वे ऐसे,
उत्पन्न हुआ हो देह–संग ही जैसे।
कर, पद, मुख तीनों अतुल अनावृत पट–से,
थे पत्र–पुंज में अलग प्रसून प्रकट–से।

कन्धे ढक कर कच छहर रहे थे उनके,
रक्षक तक्षक–से लहर रहे थे उनके।
मुख धर्म–बिंदु–मय ओस–भरा अम्बुज–सा,
पर कहाँ कण्टकित नाल सुपुलकित भुज–सा?

पाकर विशाल कच–भार एड़ियाँ धँसतीं,
तब नखज्योति–मिष, मृदुल अँगुलियाँ हँसतीं।
पर पग उठने में भार उन्हीं पर पड़ता,
तब अरुण एड़ियों से सुहास्य–सा झड़ता!

क्षोणी पर जो निज छाप छोड़ते चलते,
पद–पद्मों में मंजीर–मराल मचलते।
रुकने–झुकने में ललित लंक लच जाती,
पर अपनी छवि में छिपी आप बच जाती।

तनु गौर केतकी–कुसुम–कली का गाभा,
थी अंग–सुरभि के संग तरंगित आभा।
भौंरों से भूषित कल्प–लता–सी फूली,
गातीं थीं गुनगुन गान भान–सा भूली।

“निज सौध सदन में उटज पिता ने छाया,
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।
सम्राट स्वयं प्राणेश, सचिव देवर हैं,
देते आकर आशीष हमें मुनिवर हैं।

धन तुच्छ यहाँ, यद्यपि असंख्य आकर हैं,
पानी पीते मृग–सिंह एक तट पर हैं।
सीता रानी को यहाँ लाभ ही लाया,
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।

क्या सुन्दर लता–वितान तना है मेरा,
पुंजाकृति गुंजित कुंज घना है मेरा।
जल निर्मल, पवन पराग–सना है मेरा,
गढ़ चित्रकूट दृढ़–दिव्य बना है मेरा।

प्रहरी निर्झर, परिखा प्रवाह की काया,
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।
औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ,
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ।

श्रमवारिविन्दुफल, स्वास्थ्यशुक्ति फलती हूँ,
अपने अंचल से व्यजन आप झलती हूँ।
तनु–लता–सफलता–स्वादु आज ही आया,
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।

जिनसे ये प्रणयी प्राण त्राण पाते हैं
जी भर कर उनको देख जुड़ा जाते हैं।
जब देव कि देवर विचर–विचर आते हैं,
तब नित्य नये दो–एक द्रव्य लाते हैं।

उनका वर्णन ही बना विनोद सवाया,
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।
किसलय–कर स्वागत–हेतु हिला करते हैं,
मृदु मनोभाव–सम सुमन खिला करते हैं।

डाली में नव फल नित्य मिला करते हैं,
तृण तृण पर मुक्ता–भार झिला करते हैं।
निधि खोले दिखला रही प्रकृति निज माया,
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।

कहता है कौन कि भाग्य ठगा है मेरा?
वह सुना हुआ भय दूर भगा है मेरा।
कुछ करने में अब हाथ लगा है मेरा,
वन में ही तो ग्रार्हस्थ्य जगा है मेरा।

वह बधू जानकी बनी आज यह जाया,
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।
फल–फूलों से हैं लदी डालियाँ मेरी,
वे हरी पत्तलें, भरी थालियाँ मेरी।

मुनि बालाएँ हैं यहाँ आलियाँ मेरी,
तटिनी की लहरें और तालियाँ मेरी।
क्रीड़ा–साम्राज्ञी बनी स्वयं निज छाया,
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।

मैं पली पक्षिणी विपिन–कुंज–पिंजर की,
आती है कोटर–सदृश मुझे सुध घर की।
मृदु–तीक्ष्ण वेदना एक एक अन्तर की,
बन जाती है कल–गीति समय के स्वर की।

कब उसे छेड़ यह कंठ यहाँ न अघाया?
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।
गुरुजन–परिजन सब धन्य ध्येय हैं मेरे,
ओषधियों के गुण–विगुण ज्ञेय हैं मेरे।

वन–देव–देवियाँ आतिथेय हैं मेरे,
प्रिय–संग यहाँ सब प्रेय–श्रेय हैं मेरे।
मेरे पीछे ध्रुव–धर्म स्वयं ही धाया,
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।

नाचो मयूर, नाचो कपोत के जोड़े,
नाचो कुरंग, तुम लो उड़ान के तोड़े।
गाओ दिवि, चातक, चटक, भृंग भय छोड़े,
वैदेही के वनवास–वर्ष हैं थोड़े।

तितली, तूने यह कहाँ चित्रपट पाया?
मेरी कुटिया में राज–भवन मन भाया।

∼ मैथिली शरण गुप्त (राष्ट्र कवि)

शब्दार्थ:
पर्णकुटी ∼ घास फूस की कुटिया
बिरछे ∼ पौधे
कान्तकाया ∼ सोने जैसा शरीर
कटि ∼ कमर
कछोटा ∼ मराठी तरह से लवंग साड़ी
पयोधर ∼ नारियल
दुकूल ∼ साड़ी
अनावृत ∼ बिना ढके
प्रसून ∼ फूल
कच ∼ बाल
अंबुज ∼ कमल
तक्षक ∼ नाग
क्षोणी ∼ धरती
मंजीर ∼ पायल
ललित ∼ सुन्दर
लंक ∼ कमर
लच ∼ लचक
गाभा ∼ नव कोंपल

About Maithili Sharan Gupt

राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त (३ अगस्त १८८६ – १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के कवि थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया और इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर जयद्रथ वध, यशोधरा और साकेत तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। साकेत उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है। मैथिलीशरण गुप्त जी की बहुत-सी रचनाएँ रामायण और महाभारत पर आधारित हैं। १९५४ में पद्म भूषण सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित। प्रमुख कृतियाँ — • महाकाव्य – साकेत; • खंड काव्य – जयद्रथ वध, भारत-भारती, पंचवटी, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्ध्य, अजित, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान, कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल, जय भारत, झंकार, पृथ्वीपुत्र, मेघनाद वध, मैथिलीशरण गुप्त के नाटक, रंग में भंग, राजा-प्रजा, वन वैभव, विकट भट, विरहिणी व्रजांगना, वैतालिक, शक्ति, सैरन्ध्री, स्वदेश संगीत, हिडिम्बा, हिन्दू; • अनूदित – मेघनाथ वध, वीरांगना, स्वप्न वासवदत्ता, रत्नावली, रूबाइयात उमर खय्याम।

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