है बड़ी दण्ड से दया अन्त में न्यायी!
हे देव भार के लिये नहीं रोता हूं‚
इन चरणों पर ही मैं अधीर होता हूं।
प्रिय रहा तुम्हें यह दयाघृष्टलक्षण तो‚
कर लेंगी प्रभु–पादुका राज्य–रक्षण तो।
तो जैसी आज्ञा आर्य सुखी हों बन में‚
जूझेगा दुख से दास उदास भवन में।
बस‚ मिले पादुका मुझे‚ उन्हें ले जाऊं‚
बच उसके बल पर‚ अवधि–पार मैं पाऊं‚
हो जाय अवधि–मय अवध अयोध्या अब से‚
मुख खोल नाथ कुछ बोल सकूं मैं सब से।”
“रे भाई तूने ला दिया मुझको भी‚
शंका थी तुझसे यही अपूर्व अलोभी!
था यही अभीप्सित तुझे अरे अनुरागी‚
तेरी आर्या के वचन सिद्ध ने त्यागी!”
तब सबने जय जयकार किया मनमाना‚
वंचित होना भी श्लाघ्य भरत का जाना।
पाया अपूर्व विश्राम सांस सी लेकर‚
गिरि ने सेवा की शुद्ध अनिल जल देकर।
मूंदे अनंत ने नयन धार वह झांकी‚
शशि खिसक गया निश्चिंत हंसी हंस बांकी।
द्विज चहक उठे‚ हो गया नया उजियाला‚
हाटक–पट पहने दीख पड़ी गिरिमाला।
सिंदूर–चढ़ा आदर्श–दिनेश उदित था‚
जन जन अपने को आप निहार मुदित था।
सुख लूट रहे थे अतिथि विचरकर गाकर–
‘हम धन्य हुए इस पुण्यभूमि पर आकर।’