मैं सुन न सकूंगा बात और अब आधी।
कहती हो तुम क्या अन्य तुल्य यह वाणी‚
क्या राम तुम्हारा पुत्र नहीं वह मानी?
अब तो आज्ञा की अम्ब तुम्हारी बारी‚
प्रस्तुत हूं मैं भी धर्म धनुर्धृतिधारी।
जननी ने मुझको जना‚ तुम्हीं ने पाला‚
अपने सांचे में आप यत्न कर डाला।
सबके ऊपर आदेश तुम्हारा मैया‚
मैं अनुचर पूत‚ सपूत‚ प्यार का भैया।
बनवास लिया है मान तुम्हारा शासन‚
लूंगा न प्रजा का भार‚ राज सिंहासन?
पर यह पहला आदेश प्रथम हो पूरा‚
वह तात–सत्य भी रहे न अम्ब‚ अधूरा–
जिस पर हैं अपने प्राण उन्होंने त्यागे‚
मैं भी अपना व्रत–नियम निबाहूं आगे।
निष्फल न गया मां यहां‚ भरत का आना‚
सिर माथे मैंने वचन तुम्हारा माना।
संतुष्ट मुझे तुम देख रही हो बन में‚
सुख धन धरती में नहीं‚ किंतु निज मन में।”
“राघव तेरे ही योग्य कथन है तेरा‚
दृढ़ बाल–हठी तू वही राम है मेरा।
देखें हम तेरा अवधि मार्ग सब सहकर‚”
कौशल्या चुप हो गई आप यहा कहकर।
ले एक सांस रह गई सुमित्र्रा भोली‚
कैकेई ही फिर रामचंद्र से बोली–
“पर मुझको तो परितोष नहीं है इससे‚
हा! तब तक मैं क्या कहूं सुनूंगी किससे?
हे वत्स‚ तुम्हें बनवास दिया मैंने ही‚
अब उसका प्रत्याहार किया मैंने ही।”
“पर रघुकुल में जो वचन दिया जाता है‚
लौटा कर फिर वह कहां लिया जाता है?
क्यों व्यर्थ तुम्हारे प्राण खिन्न होते हैं‚
वे प्रेम और कर्तव्य भिन्न होते हैं।
जाने दो‚ निर्णय करें भरत ही सारा–
मेरा अथवा है‚ कथन यथार्थ तुम्हारा।
मेरी–इनकी चिर पंच रहीं तुम माता‚
हम दोनों के मध्यस्थ आज ये भ्राता”