मैं सागर तट पर खड़ा रहा।
धरती पर मानव खोज रहा,
मैं बना दधिचि अड़ा रहा॥
मानव का जीवन सीपों सा, कुछ भरा हुआ कुछ रीता सा।
कुछ गुण, कुछ अवगुण, रमें हुए, कुछ गीता सा, कुछ सीता सा॥
मुझसे लहरों का कहना था,
मैं सुनने को बस अड़ा रहा।
सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा॥
मैंने जीवन को भी देखा, देखा है मृत्यु का क्रन्दन।
मानव ने ही दानवता का, कर डाला है क्यों अभिनन्दन॥
जीवन का लक्ष्य ही मृत्यु है,
मैं इस निर्णय पर पड़ा रहा।
सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा॥
मानव हो या कि फिर दानव, जब चिता सजाई जाती है।
मिट जाती है सब चिन्तायें, जब आग लगाई जाती है॥
क्षण भंगुर है जीवन सारा,
मैं एक ठूँठ पर चढ़ा रहा।
सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा॥
नयनों में उमड़ी जलधरा, जब सागर तट से टकराई।
शमशान की जलती अग्नि से, यह बात समझ में बस आई॥
मैं लिए शान्ति मन्त्र यहाँ,
बस ‘ओम’ नाम पर अड़ा रहा।
सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा॥
पूरे जीवन का होम किया, कर्मों की गति न पहचानी।
‘रत्नम्’ ने तब से अब तक ही, अपनी ही की है मनमानी॥
गीता–कुरान–बाईबिल–ग्रन्थ,
का सार सामने पड़ा रहा।
सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा॥