द्वार–द्वार, कुंज–कुंज गाती है।
फूलों की गंध–गंध घाटी में
बहक–बहक उठता अल्हड़ हिया
हर लता हरेक गुल्म के पीछे
झलक–झलक उठता बिछुड़ा पिया
भोर हर बटोही के सीने पर
नागिन–सी लोट–लोट जाती है।
रह–रह टेरा करती वनखण्डी
दिन–भर धरती सिंगार करती है
घण्टों हंसिनियों के संग धूप
झीलों में जल–विहार करती है
दूर किसी टीले पर दिवा स्वप्न
अधलेटी दोपहर सजाती है।
चाँदनी दिवानी–सी फिरती है
लपटों से सींच–सींच देती है
हाथ थाम लेती चौराहों के
बाँहों में भींच–भींच लेती है
शिरा–शिरा तड़क–तड़क उठती है
जाने किस लिए गुदगुदाती है।
~ गिरिधर गोपाल
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