किताबों के पन्नों में
गुलाबी पंखुड़ियों का
न जाने कब यह शौक
मन में कुलबुलाने लगा।
गुलाबी पंखुड़ियों को
तोड़ किताबों के पन्नों में
डाल दिया करते थे
शायद इस आशा में
की ये पंखुड़ियां हमेशा
ताजा रहेंगी
यूँ ही अपने सुगंधों
को फैलाती
पर
आज जब उन पन्नों को
खोल रहा था,
देखा सूख चुकी थी पंखुड़ियां
मेरी आशाओं की तरह
जो कभी मेरे मन में
अंगड़ाइयां लेती थी।
बेरंग हो चुकी थीं,
सुगंध खो चुकी थी।
उन्हें देखा तो लगा
मानों कुछ कहने को
बेताब हों, की
क्या हक़ था तुम्हें
इन पन्नों में
हमें कैद करने का
क्यों नहीं हमारी सुगंध को
उन्मुक्त फैलने दिया ?
केवल उसके लिए।
जिसने तुम्हे कभी नहीं चाहा!
कितने स्वार्थी हो मैथिल
अपने थोड़े से स्वार्थ के के लिए
हमारे अस्तित्व को किताबों
के इन पन्नों में सीमित
कर दिया!!
बताओ मैथिल,
हमारा क्या दोष था?
क्यों तुमने ऐसा किया?
अब जब भी किताबों के
पन्नों को पलटता हूँ
यही प्रश्न कौंध उठता है
आखिर क्या दोष था?
उन पंखुड़ियां का
जो
हमें शौक हुआ था
किताबों के पन्नों में
गुलाबी पंखुड़ियों का।