श्वेत कबूतर: वीरबाला भावसार

श्वेत कबूतर: अचानक मिलने वाली खुशी पर कविता

श्वेत कबूतर कविता: It happens some times. We get suddenly and without expecting, some thing that we had longed for a long long time. Heart is thrilled, and it sings, and dances! Coming of a white pigeon is a metaphor of such a rare thrill.

श्वेत कबूतर कविता: डॉ. वीरबाला

मेरे आंगन श्वेत कबूतर!
उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

गर्मी की हल्की संध्या यों – झांक गई मेरे आंगन में
झरीं केवड़े की कुछ बूंदें, किसी नवोढ़ा के तन-मन में;
लहर गई सतरंगी-चूनर, ज्यों तन्यी के मृदुल गात पर!

उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे अपान श्वेत कबूतर!

मेरे हाथ रची मेहंदी, उर बगिया में बौराया फागुन
मेरे कान बजी बंसी–धुन, घर आया मनचाहा पाहुन
एक पुलक प्राणों में, चितवन एक नयन में, मधुर-मधुरतर!

उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

ताना मर गयी आँखों में, मुझको उषा की अरूणाई
थितजक गयी अधरों तक आकर, बात कोई बिसरी बिसराई
ठहर गया जैसे कोई बन पाखी, मन की झुकी डाल पर

उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

कोई सुंदर स्वप्न सुनहले, आंचल में चंदा बन आया
कोई भटका गीत उनींदा, मेरी सांसों से टकराया;
छिटक गई हो जैसे जूही, मन-प्राणों में महक-महक कर!

उड़ आया ऊंची मुडेर से, मेरे अपान श्वेत कबूतर!

मेरा चंचल गीत किलकता, घर-आंगन देहरी-दरवाजे
दीप जलाती सांझ उतरती, प्राणों में शहनाई बाजे
अमराई में बिखर गए री, फूल सरीखे सरस-सरस स्वर!

उड़ आया ऊंची मुंडेर से, मेरे आंगन श्वेत कबूतर!

∼ श्वेत कबूतर कविता by डॉ. वीरबाला

Dr. Veerbala (Veera) was born on October 13, 1930 in Allahabad to Shri. Chiranji Lal Verma (an architect) and Smt. Chanda devi (nee Johri) (Later Principal Kanya Gurukul, Hatharas). The only other sibling she had was her elder brother, the renowned Hindi poet and writer, Dr. Dharamvir Bharati. Dr. Veerbala did her early education (Snataka) from Kanya Gurukul, Hathras and was later married to Dr. Shatendra Kumar of Delhi in 1948.

She continued her education after the marriage and completed MA (Sanskrit) and Ph.D. on the Sanskrit dramatist Bhasa, from Delhi in 1970. She taught Sanskrit at Vivekanand Mahila College, Delhi University till 1996. She was an active poetess and writer in late 1950s and early 1960s and wrote under the pen name Veera, given to her by her brother. Many of her poems and short stories were published in contemporary magazines like Saptahik Hindustan, Kadambini and Dharmayug, as also in anthologies of poems and stories. Her novel Maut ka Phool was published by National Publishing House in 1959. She published many poems also but gave up writing in later years.

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