देहरी पर कान
धूल–भरे सूने दालान
हल्दी के रूप भरे सूने दालान।
परदों के साथ साथ उड़ता
चिड़ियों का खंडित–सा छाया क्रम
झरे हुए पत्तों की खड़–खड़ में
उगता है कोई मनचाहा भ्रम
मंदिर के कलशों पर
ठहर गई सूरज की काँपती थकन
धूल–भरे सूने दालान।
रोशनी चढ़ी सीढ़ी–सीढ़ी
डूबा–मन
जीने की मोड़ों को
घेरता अकेलापन
ओ मेरे नन्दन!
आँगन तक बढ़ आया
एक बियाबान
धूल–भरे सूने दालान।
~ सोम ठाकुर
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