काग बोलता शून्य स्वरों में
फूल आखिरी ये बसंत के
गिरे ग्रीष्म के ऊष्म करों में
धीवर का सूना स्वर उठता
तपी रेत के दूर तटों पर
हल्की गरम हवा रेतीली
झुक चलती सूने पेड़ों पर
अब अशोक के भी थाले में
ढेर ढेर पत्ते उड़ते हैं
ठिठका नभ डूबा है रज में
धूल भरी नंगी सड़कों पर।
वन खेतों पर है सूनापन
खालीपन निःशब्द घरों में
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में
यह जीवन का एकाकीपन
गरमी के सुनसान दिनों सा
अंतहीन दोपहरी, डूबा
मन निश्चल है शुष्क वनों सा।
~ गिरिजा कुमार माथुर
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