तालाब किनारे राेती थी, कल बिटिया इक बैरागन की,
जब जालम कागा ले भागा, बिन पूछे टिकिया साबुन की।
ये बाल भी लतपत साबुन में, पाेशाक भीतन पर नाजक सी,
था अब्र में सूरज भी पिनहां, आैर तेज हवा थी फागुन की।
आंचल भी उसका उड़ता था, आैर हवा के संग लहराता था,
इक हाथ में दामन थामा था, इक हाथ में टैहनी फागुन की।
कहती थी साबुन दे मेरा, आैर ले असीस इस पापन की,
सुख बास हाे तेरे बच्चाें का, आैर खैर हाे तेरी कागन की।
प्रधान बना बैठा था वाेह इक पेड़ पे भद्र पुरूषाें में,
उस पेड़ की टहनी-टहनी पर आबाद थी लंका रावण की।
नागाह जमीं पर गिरी टिकिया, दुखिया ने लपक कर हाथ में ली,
यूं खुश थी जैसे हाथ लगी हाे, चिठिया बिछड़े साजन की।
जब गुसल में थे मसरूफ नगीना, यूं ही तबीयत आ जाे गई,
यह नज्म जुबां पर जारी थी, आैर हाथ में टिकिया साबुन की।