इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा।
अच्छा है अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं है
तुझको किसी मजहब से कोई काम नहीं है
जिस इल्म ने इंसान को तकसीम किया है
उस इल्म का तुझ पर कोई इलज़ाम नहीं है
तू बदले हुए वक्त की पहचान बनेगा।
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया
हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया
कुदरत ने तो बख्शी थी हमें एक ही धरती
हमने कहीं भारत कहीं इरान बनाया
जो तोड़ दे हर बंध वो तूफ़ान बनेगा।
नफरत जो सिखाये वो धरम तेरा नहीं है
इन्सां को जो रौंदे वो कदम तेरा नहीं है
कुरआन न हो जिसमे वो मंदिर नहीं तेरा
गीता न हो जिसमे वो हरम तेरा नहीं है
तू अम्न का और सुलह का अरमान बनेगा।
ये दीन के ताजिर ये वतन बेचने वाले
इंसानों की लाशों के कफ़न बेचने वाले
ये महलों में बैठे हुए ये कातिल ये लुटेरे
काँटों के एवज़ रूह-ए-चमन बेचने वाले
तू इनके लिये मौत का ऐलान बनेगा।
~ साहिर लुधियानवी
फिल्म: Dhool ka Phool (1959)
संगीतकार: N. Dutta
गायक: मुहम्मद रफ़ी
नीर्माता: B. R. Chopra
निर्देशक: Yash Chopra
कलाकार: Manmohan Krishan
A highly admirable song underscoring the reality that human-beings are above the differences of religion and they should not be differentiated as such. The children never go by such categorizations and that’s why the singer (Mohammed Rafi singing for Manmohan Krishna) tells the infant that he will grow up as a human-being and not as a Hindu or a Muslim. N. Dutta has composed Saahir’s memorable lyric.