तुम्हारा साथ – रामदरश मिश्र

सुख के दुख के पथ पर जीवन
छोड़ता हुआ पदचाप गया,
तुम साथ रहीं, हँसते–हँसते
इतना लम्बा पथ नाप गया।

तुम उतरीं चुपके से मेरे
यौवन वन में बन कर बहार,
गुनगुना उठे भौंरे, गुंजित हो
कोयल का आलाप गया।

स्वप्निल स्वप्निल सा लगा गगन
रंगों में भीगी–सी धरती,
जब बही तुम्हारी हँसी हवा–सी
पत्ता–पत्ता काँप गया।

जाने कितने दिन हम यों ही
बहके मौसम के साथ रहे,
जाने कितने ही ख्वाब
हमारी आँखों में वह छाप गया।

धीरे–धीरे घर के कामों ने
हाथ तुम्हारे थाम लिये,
मेरा भी मन अब नये समय का
नया इशारा भाँप गया।

अरतन–बरतन चूल्हा चक्की
रोटी–पानी के राग उठे,
झड़ गये बहकते रंग हृदय में
भावों का भर ताप गया।

मैंने न किया तुमने न किया
अब प्यार भरा संवाद कभी,
बोलता हुआ वह प्यार न जाने
कब बन क्रिया कलाप गया।

झगड़े भी हुए अनबोला भी
पर सदा दर्द की चादर से,
चुपके से कोई एक–दूसरे का
नंगापन ढाँक गया।

इस विषय सफ़र की आँधी में
हम चले हाथ में हाथ दिये,
चलते–चलते हम थके नहीं
आखिर रास्ता ही हाँफ गया।

∼ रामदरश मिश्र

About Ramdarash Mishra

डॉ. रामदरश मिश्र (जन्म: १५ अगस्त, १९२४ गोरखपुर, उत्तर प्रदेश, भारत) हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। ये जितने समर्थ कवि हैं उतने ही समर्थ उपन्यासकार और कहानीकार भी। इनकी लंबी साहित्य-यात्रा समय के कई मोड़ों से गुजरी है और नित्य नूतनता की छवि को प्राप्त होती गई है। ये किसी वाद के कृत्रिम दबाव में नहीं आये बल्कि उन्होंने अपनी वस्तु और शिल्प दोनों को सहज ही परिवर्तित होने दिया। अपने परिवेशगत अनुभवों एवं सोच को सृजन में उतारते हुए, उन्होंने गाँव की मिट्टी, सादगी और मूल्यधर्मिता अपनी रचनाओं में व्याप्त होने दिया जो उनके व्यक्तित्व की पहचान भी है। गीत, नई कविता, छोटी कविता, लंबी कविता यानी कि कविता की कई शैलियों में उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा ने अपनी प्रभावशाली अभिव्यक्ति के साथ-साथ गजल में भी उन्होंने अपनी सार्थक उपस्थिति रेखांकित की। इसके अतिरक्त उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रावृत्तांत, डायरी, निबंध आदि सभी विधाओं में उनका साहित्यिक योगदान बहुमूल्य है।

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