उदास सांझ: कठोर कठिन थके हुए जीवन पर कविता

उदास सांझ: कठोर कठिन थके हुए जीवन पर कविता

As the sun sets and darkness prepares to engulf the world, a strange depression some times sets in our thoughts. In this lovely poem Maitreyee Ji has drawn a shabda chitra of this sense of restlessness.

उदास सांझ: मैत्रेयी अनुरूपा

दिनभर तपा धूप में थक कर‚
हो निढाल ये बूढ़ा सूरज‚
बैठ अधमरे घोड़ों पर – जो
डगमग गिर गिर कर उठते से
कदमों को बैसाखी पर रख‚
संध्या की देहरी पर आकर‚
लगता है गिरने वाले हैं।

पथ के मील‚ पांव के छाले
बन कर सारे फूट गये हैं‚
जिनसे बहता रक्त‚ सांझ की
अंगनाई में बिखर गया है‚
और दुशाला ओढ़ सुरमई‚
खड़ा द्वार पर टेक लगाये–
तिमिर‚ हाथ की मैली चादर
उसके ऊपर डाल रहा है।

एक कबूतर फिर शाखों पर
नया बिछौना बिछा रहा है।
एक और दिन बीत रहा है।
लेकिन मन की गहन उदासी
ढलती नहीं दिवस ढलने पर‚
बढ़ते हुए अंधेरे के संग
गहरी और हुई जाती है।

फौलादी सन्नाटा‚ कटता नहीं‚
तनिक कोशिश करती हूं –
और हार कर‚ थक कर मैं भी‚
कोहनी टिका मेज पर अपनी‚
मुट्ठी ठोड़ी पर रखती हूं‚
और शून्य में खो जाती हूं।

~ ‘उदास सांझ’ poem by मैत्रेयी अनुरूपा

परेशान लोग अवश्य करें यह उपाय

एक बार एक लड़का किसी संत के पास पहुंचा और बोला, “महात्मा जी, मैं अपनी जिन्दगी से बहुत परेशान हूं, कृपया इस परेशानी से निकलने का उपाय बताएं। संत बोले, “पानी के गिलास में एक मुट्ठी नमक डालो और उसे पियो।”

लड़के ने ऐसा ही किया। संत ने पूछा, “इसका स्वाद कैसा लगा”?

लड़के ने थूकते हुए जवाब दिया, “बहुत ही खराब, एकदम खारा”।

संत मुस्कुराते हुए बोले, “एक बार फिर अपने हाथ में एक मुट्ठी नमक ले लो और मेरे पीछे-पीछे आओ”।

दोनों धीरे-धीरे आगे बढऩे लगे और थोड़ी दूर जाकर साफ पानी की एक झील के सामने रुक गए।

संत ने कहा, “लो, अब इस नमक को पानी में डाल दो”।

लड़के ने ऐसा ही किया।

संत ने कहा कि अब इस झील का पानी पियो।

लड़के ने पानी पिया।

संत ने फिर पूछा, “बताओ अब इसका स्वाद कैसा है? क्या अभी भी तुम्हें यह खारा लग रहा है”?

लड़का बोला, “नहीं, यह तो मीठा है, बहुत अच्छा है।”

संत लड़के के पास बैठ गए और उसका हाथ थामते हुए बोले, “जीवन के दुख बिल्कुल नमक की तरह हैं, न इससे कम, न ज्यादा। जीवन में दुख की मात्रा एक जैसी ही रहती है लेकिन हम कितने दुख का स्वाद लेते हैं यह इस पर निर्भर करता है, मायने यह रखता है कि हम उसे किस बर्तन में डाल रहे हैं। इसलिए जब तुम दुखी हो तो सिर्फ इतना कर सकते हो कि खुद को बड़ा कर लो। गिलास मत बने रहो, झील बन जाओ।”

सीधी सी बात है कि ऐसा करने से खुद-ब-खुद दुखों से मुक्ति मिल जाएगी और खुशहाल जिंदगी की राह खुलेगी।

Check Also

English Poem about Thanksgiving: The Pumpkin

The Pumpkin: English Poem to read on Thanksgiving Day Festival

The Pumpkin: John Greenleaf Whittier uses grandiose language in “The Pumpkin” to describe, in the …