आ चुका है दूर द्वापर से बहुत संसार
यह समय विज्ञान का, सब भाँति पूर्ण, समर्थ
खुल गये हैं गूढ़ संसृति के अमित गुरु अर्थ।
वीरता तम को सँभाले बुद्धि की पतवार
आ गया है ज्योति की नव भूमि में संसार
हैं बंधे नर के करों में वारि, विद्युत, भाप
हुक्म पर चढ़ता उतरता है पवन का ताप
मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश
और करता शब्दगुण अंबर वहन संदेश
यह प्रगति निस्सीम! नर का यह अपूर्व विकास
चरण–तल भूगोल! मुठ्ठी में निखिल आकाश।
किंतु है बढ़ता गया मस्तिष्क ही निःशेष
छूट कर पीछे गया है रह, हृदय का देश
नर मनाता नित्य नूतन बुद्धि का त्यौहार
प्राण में करते दुखी हो देवता चीत्कार
चाहिये उनको न केवल ज्ञान
देवता हैं माँगते कुछ स्नेह, कुछ बलिदान
चाँदनी की रागिनी कुछ भोर की मुस्कान
नींद में भूली हुई बहती नदी का गान
धूल कोलाहल थकावट धूल के उस पार
शीत जल से पूर्ण कोई मन्दगामी धार
वृक्ष के नीचे जहाँ मन को मिले विश्राम
अदमी काटे जहाँ कुछ छुट्टियाँ कुछ शाम
कर्म–संकुल लोक–जीवन से समय कुछ छीन
हो जहाँ पर बैठ नर कुछ पल स्वयं में लीन
ले चुकी सुख–भाग समुचित से अधिक है देह
देवता हैं माँगते मन के लिये लघु गेह।