Nostalgia Hindi Poem on Helplessness विवशता

मजबूर भारतीय प्रवासी पर हिंदी कविता: विवशता

जो लोग भारत छोड़कर विश्व के दूसरे देशों में जा बसे हैं उन्हे प्रवासी भारतीय कहते हैं । ये विश्व के अनेक देशों में फैले हुए हैं। 48 देशों में रह रहे प्रवासियों की जनसंख्या करीब 2 करोड़ है। इनमें से 11 देशों में 5 लाख से ज्यादा प्रवासी भारतीय वहां की औसत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं और वहां की आर्थिक व राजनीतिक दशा व दिशा को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यहां उनकी आर्थिक, शैक्षणिक व व्यावसायिक दक्षता का आधार काफी मजबूत है। वे विभिन्न देशों में रहते हैं, अलग भाषा बोलते हैं परन्तु वहां के विभिन्न क्रियाकलापों में अपनी महती भूमिका निभाते हैं। प्रवासी भारतीयों को अपनी सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने के कारण ही साझा पहचान मिली है और यही कारण है जो उन्हें भारत से गहरे जोड़ता है।

जहां-जहां प्रवासी भारतीय बसे वहां उन्होंने आर्थिक तंत्र को मजबूती प्रदान की और बहुत कम समय में अपना स्थान बना लिया। वे मजदूर, व्यापारी, शिक्षक अनुसंधानकर्ता, खोजकर्ता, डाक्टर, वकील, इंजीनियर, प्रबंधक, प्रशासक आदि के रूप में दुनियाभर में स्वीकार किए गए। प्रवासियों की सफलता का श्रेय उनकी परंपरागत सोच, सांस्कृतिक मूल्यों और शैक्षणिक योग्यता को दिया जा सकता है। कई देशों में वहां के मूल निवासियों की अपेक्षा भारतवंशियों की प्रति व्यक्ति आय ज्यादा है। वैश्विक स्तर पर सूचना तकनीक के क्षेत्र में क्रांति में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसके कारण भारत की विदेशों में छवि निखरी है। प्रवासी भारतीयों की सफलता के कारण भी आज भारत आर्थिक विश्व में आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है।

विवशता ~ राजीव कृष्णा सक्सेना

I wrote this poem “विवशता“, or should I say the poem forced its way out of my heart when I was stationed in US for a long period and was sorely missing home on the eve of Diwali

इस बार नहीं आ पाऊँगा…

पर निश्चय ही यह हृदय मेरा,
बेचैनी से अकुलाएगा,
कुछ नीर नैन भर लाएगा,
पर जग के कार्यकलापों से,
दायित्वों के अनुपातों से,
हारूँगा जीत न पाऊँगा।

इस बार नहीं आ पाऊँगा…

जब संध्या की अंतिम लाली,
नीलांबर पर बिछ जाएगी,
नभ पर छितरे घनदल के संग,
जब सांध्य रागिनी गाएगी,
मन से कुछ कुछ सुन तो लूँगा,
पर साथ नहीं गा पाऊँगा।

इस बार नहीं आ पाऊँगा…

जब प्रातः की मंथर समीर,
वृक्षों को सहला जाएगी,
मंदिर की घंटी दूर कहीं,
प्रभु की महिमा को गाएगी,
तब जोड़ यहीं से हाथों को,
अपना प्रणाम पहुँचाऊँगा।

इस बार नहीं आ पाऊँगा…

जब ग्रीष्म काल की हरियाली,
अमराई पर छा जाएगी,
कूहू-कूहू कर के कोयल,
रस आमों में भर जाएगी,
रस को पीने की ज़िद करते,
मन को कैसे समझाऊँगा।

इस बार नहीं आ पाऊँगा…

जब इठलाते बादल के दल,
पूरब से जल भर लाएँगे,
जब रंग बिरंगे पंख खोल,
कर मोर नृत्य इतराएँगे,
मेरे पग भी कुछ थिरकेंगे,
पर नाच नहीं मैं पाऊँगा।

इस बार नहीं आ पाऊँगा…

जब त्यौहारों के आने की,
रौनक होगी बाज़ारों में,
खुशबू जानी पहचानी-सी,
बिख़रेगी घर चौबारों में,
उस खुशबू की यादों को ले,
मैं सपनों में खो जाऊँगा।

राजीव कृष्ण सक्सेना

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