कितना शीतल‚ कितना निर्मल।
हिमगिरि के हिम निकल–निकल‚
यह विमल दूध–सा हिम का जल‚
कर–कर निनाद कलकल छलछल‚
बहता आता नीचे पल–पल।
तन का चंचल‚ मन का विह्वल।
यह लघु सरिता का बहता जल।
निर्मल जल की यह तेज धार‚
करके कितनी श्रृंखला पार‚
बहती रहती है लगातार‚
गिरती–उठती है बार बार।
रखता है तन में इतना बल।
यह लघु सरिता का बहता जल।
एकांत प्रांत निर्जन–निर्जन‚
यह वसुधा के हिमगिरि का वन‚
रहता मंजुल मुखरित क्षण–क्षण‚
रहता जैसे नंदन–कानन।
करता है जंगल में मंगल।
यह लघु सरिता का बहता जल।
करके तृण–मूलों का सिंचन
लघु जल–धारों से आलिंगन‚
जल–कुंडों में करके नर्तन‚
करके अपना बहु परिवर्तन।
आगे बढ़ता जाता केवल।
यह लघु सरिता का बहता जल।
ऊँचे शिखरों से उतर–उतर‚
गिर–गिर गिरि की चट्टानों पर‚
कंकड़–कंकड़ पैदल चलकर‚
दिनभर‚ रजनीभर‚ जीवनभर।
धोता वसुधा का अंतस्तल।
यह लघु सरिता का बहता जल।
मिलता है इसको जब पथ पर‚
पथ रोके खड़ा कठिन पत्थर‚
आकुल‚ आतुर दुख से कातर‚
सिर पटक–पटक कर रो–रोकर।
करता है कितना कोलाहल।
यह लघु सरिता का बहता जल।
हिम के पत्थर वे पिघल–पिघल‚
बन गए धरा का धारि विमल‚
सुख पाता जिससे पथिक विकल‚
पी–पीकर अंजलिभर मृदु जल।
नित जलकर भी कितना शीतल।
यह लघु सरिता का बहता जल।
कितना कोमल‚ कितना वत्सल‚
रे‚ जननी का वह अंतस्तल‚
जिसका यह शीतल करुणाजल‚
बहता रहता युग–युग अविरल।
गंगा‚ यमुना‚ सरयू निर्मल।
यह लघु सरिता का बहता जल।
∼ गोपाल सिंह नेपाली
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