गुरु पर अनमोल विचार विद्यार्थियों के लिए
गुरु का महत्व उनके शिष्यों को भली-भांति पता होता। अगर गुरु नहीं तो शिष्य भी नहीं अर्थात् गुरु के बिना शिष्य का कोई अस्तित्व नहीं होता है। प्राचीन काल से गुरु और उनका आशीर्वाद भारतीय परंपरा और संस्कृति का अभिन्न अंग है। प्राचीन समय में गुरु अपनी शिक्षा गुरुकुल में दिया करते थे। गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात शिष्य उनके पैर स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लेते थे। गुरु का स्थान माता-पिता से अधिक होता है। गुरु के बगैर शिष्यों का वजूद नहीं होता है।
जिंदगी के सही मार्ग का दर्शन छात्रों को उनके गुरुजी करवाते हैं। जीवन में छात्र सही गलत का फर्क गुरुजी के शिक्षा के बिना नहीं कर सकते हैं। शिष्यों के जिंदगी में गुरु का स्थान सबसे ऊंचा होता है। गुरु जो भी फैसला लेते हैं उनके शिष्य उनका अनुकरण करते हैं। गुरु शिष्यों के मार्गदर्शक हैं और शिष्यों की जिंदगी में अहम भूमिका निभाते हैं।
- यह तन विष की बेलरी
गुरु अमृत की खान।
सीस दिए जो गुरु मिले
तो भी सस्ता जान।
– कबीर - मार्ग को न जानने वाला अवश्य ही मार्ग को जानने वाले से पूछता हैं। गुरु के अनुशासन का यही कल्याण दायक फल है कि वह अनुशासित, अज्ञानी पुरुष भी ज्ञान को प्रकाशित करने वाला वाणियों को प्राप्त करता है। –ऋग्वेद
- गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय।
– कबीरदास - बिन गुरु होय न ज्ञान। – तुलसीदास
- जो शिष्य होकर भी शिष्योचित बर्ताव नहीं करता, अपना हित चाहने वाले गुरु को उसकी धृष्टता क्षमा नहीं करनी चाहिए। – वेदव्यास
- हरि सा हीरा छाड़ि कै, करै आन की आस। ते नर जमपुर जाहिँगे, सत भाषै रैदास। – रैदास
- अपना गुरु स्वयं प्राणी ही होता है, विशेष कर पुरुष के लिए, क्योंकि वह प्रत्यक्ष और अनुमान से श्रेय को जान लेता है। – भागवत
- ‘गु’ शब्द का अर्थ है ‘अंधकार’ और ‘रू’ का अर्थ है तेज; अज्ञान का नाथ करने वाला तेजरूप ब्रहृा, गुरु ही है, इसमें संशय नहीं है। – गुरुगीता
- गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है; गुरु महेश्वर है; गुरु ही परब्रह्म है, उस गुरु के लिए नमस्कार है। – स्कन्दपुराण
- जिसने ज्ञान-रूपी अंजन की सलाई से अज्ञान रूपी अंधेरे से अंधी हुई आंखों को खोल दिया, उन श्री गुरु को नमस्कार है। – स्कन्दपुराण
- ध्यान का आदिकारण गुरु मूर्ति है गुरु का चरण पूजा का मुख्य स्थान है। गुरु का वाक्य सब मन्त्रों का मूल है और गुरु की कृपा मुक्ति कारण है। – स्कन्दपुराण
- शिष्य के धन का हरण करने वाले गुरु बहुत से हैं परन्तु शिष्य के दुःख को हरने वाला गुरु दुर्लभ है। – स्कन्दपुराण
- बन्धुओं तथा मित्रों पर नहीं, शिष्य का दोष केवल उसके गुरु पर आ पड़ता है। माता-पिता का अपराध भी नहीं माना जाता क्योंकि वे तो बाल्यावस्था में ही अपने बच्चों को गुरु के हाथों में समर्पित कर देते है। – भास
- यदि गुरु अयोग्य शिष्य चुन तो उससे गुरु की बुद्धिहीनता ही प्रकट होती है। – कालिदास
- गुरु का उपदेश निर्मल होने पर भी असाध्य पुरुष के कान में जाने पर उसी प्रकार दर्द उत्पन्न करता है जैसे जल। – वाणभट्ट
- गुरुओं के शासन से विहीन किस की बाल्यावस्था उच्श्रृंखल नहीं हो जाती? – सोमदेव
- अभिमान करने वाले, कार्य और अकार्य को न जानने वाले तथा कुपथ पर चलने वाले गुरु का भी परित्याग कर देना चाहिए।
– कृष्ण मिश्र - गुरु को किया गया प्रणाम कल्याणकारी होता है। – कर्ण
- जिस प्रकार जन्मांध व्यक्ति हाथ पकड़ कर ले जाने वाले व्यक्ति के अभाव में कभी मार्ग से जाता है तो कभी कुमार्ग से। उसी प्रकार संसार में संसरण करता अज्ञानी प्राणी पथप्रदर्शक सद्गुरू के अभाव में कभी पुण्य करता है तो कभी पाप। – विसुद्धिमग्ग
- अन्धा अन्धे का पथप्रदर्शक बनता है तो वह अभीष्ट मार्ग से दूर भटक जाता है। – सूत्रकृतांग
- जो केवल कहता फिरता है, वह शिष्य है। जो वेद का पाठ मात्र करता है, वह नाती है। जो आचरण करता है, वह हमारा गुरु है और हम उसी के साथी हैं। – गोरखनाथ
- बादल चल रहे हैं, आंधी चल रही है, बाढ़ के कारण लाखों लहरें उठ रही हैं। ऐसी अवस्था में सद्गुरू का पुकारा फिर तुम्हें डूबने का भय नहीं रहेगा। – गुरुनानक
- जो स्वरूप गुरु का अंतर में प्रकट होता है वह हाड़-मांस का नहीं है भक्तजन के निमित्त गुरु स्वरूप का आकार धारण करता है। – राय सालिगराय हुजूर महाराज
- केवल कान में मन्त्र देना गुरु का काम नहीं है। संकट से रक्षा करना शिष्य के कर्म को गति देना भी गुरु का काम है। – लक्ष्मीनारायण मिश्र
- ज्ञान की प्रथम गुरु माता है। कर्म का प्रथम गुरु पिता है। प्रेम का प्रथम गुरु स्त्री है और कर्त्तव्य का प्रथम गुरु सन्तान है। – आचार्य चतुरसेन शास्त्री
- गुरु में हम पूर्णता की कल्पना करते हैं। अपूर्ण मनुष्यों को गुरु बना कर हम अनेक भूलों के शिकार बन जाते है। – महात्मा गांधी
- गुरु हमें सिखाता है कि विभिन्न शास्त्रों के ज्ञान के लिए हमें किस प्रकार व्याकुल रहना चाहिए, किस प्रकार पागल-जैसा बनना चाहिए। शिष्य को यह प्रतीत होता है कि गुरु मानो अनन्त ज्ञान की मूर्ति है। गुरु मानो एक प्रतीक होता है। – साने गुरुजी
- हमारे गुरु का न आदि है, न अन्त। हमारे गुरु का न पूर्व है, न पश्चिम। हमारा गुरु है परिपूर्णता। – साने गुरुजी
- गुरु अपनी अन्धभक्ति पसन्द नहीं करते। गुरु के सिद्धान्तों को आगे बढ़ाना, उनके प्रयोगों को आगे चालू रखना ही उनकी सच्ची सेवा है। – साने गुरुजी
- निर्भयतापूर्वक ज्ञान की उपासना करते रहना ही गुरु-भक्ति है। एक दृष्टि से सारा भूतकाल हमारा गुरु है। सारे पूर्वज हमारे गुरु हैं। – साने गुरुजी
- शिष्य के ज्ञान पर सही करना, इतना ही गुरु का काम। बाकी शिष्य स्वावलंबी है। – विनोबा भावे
- जिन गुरु ने मुझे इस संसार-सागर से पार उतारा, वे मेरे अन्तःकरण में विराजमान है, बुद्धिमानों को गुरु-भक्ति करनी चाहिए और उसके द्वारा कृत कार्य होना चाहिए। – ज्ञानेश्वर
- सद्गुरू में बढ़ कर तीनों लोकों में कोई दूसरा नहीं है। – एकनाथ
- उपदेश ऐसे करे जैसे मेघ बरसे। पर गुरु बनकर किसी को शिष्य न बनावे। – तुकाराम
- जो समाज गुरु द्वारा प्रेरित है, वह अधिक वेग से उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है, इसमें कोई संदेह नहीं। किन्तु जो समाज गुरु-विहीन है, उसमें भी समय की गति के साथ गुरु का उदय तथा ज्ञान का विकास होना उतना ही निश्चित है। – विवेकानंद
- तुमको अन्दर से बाहर विकसित होना है। कोई तुमको न सिखा सकता है न आध्यात्मिक बना सकता है। तुम्हारी आत्मा के सिवा और कोई गुरु नहीं है। ~ विवेकानंद
- गुरु कृपा विषयों का त्याग दुर्लभ है। तत्त्व दर्शन दुर्लभ है। सद्गुरू की कृपा बिना सहजावस्था की प्राप्ति दुर्लभ है। ~ महोपनिषद्
- गुरु की कृपा से, शिष्य बिना ग्रंथ पढ़े ही पंडित हो जाता है। ~ विवेकानंद