कहा जाता है कि आज भी मंदिर में पशु बलि देने की प्रथा है। लेकिन मंदिर में आकर अपने हाथों से शाकाहारी भोजन बनाकर माता को भोग लगाने से देवी अधिक प्रसन्न होती है। मंदिर में दो दीपस्तंभ हैं जिन पर नवरात्रों में दीप प्रज्वलित किए जाते हैं। नवरात्रों में अष्टमी को होने वाली पूजा के बाद माता को मदिरा का भोग लगाया जाता है।
मंदिर की कथा राजा विक्रमादित्य के राजा बनने की किंवदंती से संबंधित हैं। माना जाता है कि माता को जवान लड़के की बलि दी जाती थी। उस लड़के को उज्जैन का राती घोषित किया जाता था। उसके पश्चात माता भूखी देवी उसे खा जाती थी। एक मां दुखी होकर विलाप कर रही थी। तब विक्रमादित्य ने उस स्त्री को वचन दिया कि वह माता से प्रार्थना करेगा कि आप के बेटे को न खाए यदि देवी नहीं मानेगी तो वह नगर का राजा अौर भूखी माता का भोग बनेगा।
राजा बनने से पश्चात विक्रमादित्य ने आदेश दिया कि पूरे शहर को सुगंधित भोजन से सजाया जाए। जगह-जगह छप्पन भोज सजा दिए गए, जिससे भूखी माता की भूख शांत हो गई। भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर भोजशाला में सजा दिए गए। उन्होंने मिठाईयों का एक पुतला बनवाकर तख्त पर लेटा दिया अौर स्वयं उसके नीचे छिप गया।
रात के समय सभी देवियों ने वहां आकर भोजन किया अौर खुश होकर वहां से जाने लगी तो एक देवी को जिज्ञासा हुई कि तख्त के ऊपर क्या रखा है वह उसे देखे। देवी ने उस मिठाई के पुतले को खा लिया अौर खुश होकर कहा ये स्वादिष्ट मानव का पुतला यहां किसने रखा है। तभी विक्रमादित्य ने तख्त के नीचे से निकल कर कहा कि यह उसने रखा है। देवी ने प्रसन्न होकर उसे वरदान मांगने को कहा। विक्रमादित्य ने कहा कि कृपा करके आप नदी के उस पार ही विराजमान रहें, कभी नगर में न आएं।
देवी ने राजा की चतुराई से प्रसन्न होकर राजा विक्रमादित्य को आशीर्वाद दे दिया। अन्य देवियों ने इस घटना पर उक्त देवी का नाम भूखी माता रख दिया। राजा विक्रमादित्य ने नदी के उस पार देवी के मंदिर का निर्माण करवाया। उसके पश्चात देवी ने उन्हें कभी परेशान नहीं किया।