कालिनेमी का उल्लेख रामचरित मानस के लंका कांड, अध्यात्म रामायण के युद्ध कांड के सर्ग छः व सात में तथा आनंद रामायण के सर्ग 1 व 11 में मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस के लंका कांड के दोहा संख्या 55 से 58 तक में कालिनेमि का वर्णन किया है।
लक्ष्मण जब मेघनाद द्वारा चलाए गए शक्तिबाण से मूर्च्छित हो जाते हैं, तो हनुमान जी सुषेण वैध की सलाह पर धौलागिरी की ओर संजीवनी बूटी लाने के लिए प्रस्थान करते हैं। रावण द्वारा भेजा गया मुनि वेशधारी कालिनेमि राक्षस हनुमानजी का मार्ग अवरुद्ध करता है। कालिनेमि रचित सरोवर आश्रम को देख हनुमानजी की जल पिने की इच्छा हुई। हनुमानजी के सरोवर में प्रवेश करते ही अभीशापित अप्सरा ने मकड़ी के रूप में, उनका पैर पकड़ लिया। मकड़ी ने कालिनेमि का रहस्य बताते हुए हनुमानजी से कहा, “मुनि ह होई यह निशिचर घोरा। मानहुं सत्य बचन कपि मोरा।।” ऐसा कहकर मकड़ी लुप्त हो गई। तुलसी बाबा ने कालिनेमि के आश्रम के विषयों में नाम निर्देश तो नहीं किया है लेकिन परंपरागत जनश्रुति यही है कि बिजेथुआ महाबीरन ही वह पौराणिक स्थल है, जिसका संबंध कालिनेमि, हनुमानजी व मकड़ी से है। बताया जाता है कि यहां मकड़ी कुंड सरोवर, हनुमानजी का भव्य मंदिर तथा उसमें दक्षिणाभिमुख प्रतिमा पुराने जमाने से स्थित है।
शक्तिपीठ बिजेथुआ धाम में समय-समय पर अनेक संतों ने घोर तपस्या की। मकड़ी कुंड के पूरब टीले पर बाबा निर्मल दास, हरिदास, चेतनदास, जोगी दास, युक्ति दास आदि की समाधियां बनी हुई हैं। स्थानीय बुजुर्गों का कहना है कि हनुमानजी की मूर्ति स्वयंभू प्रतिमा है। तत्कालीन जमींदार के सहयोग से मूर्ति निकालने का कार्य शुरू हुआ। कई दिनों की खुदाई के बाद भी जब मूर्ति की गहराई का पता नहीं चला, तो भक्तों ने खुदाई का कार्य बंद कर दिया। इस कारण यहां स्थापित हनुमानजी की प्रतिमा का एक पैर कितनी गहराई में है, इसका आज भी पता नहीं है।
सूरापुर कस्बे से दो कि.मी. दक्षिण बिजेथुआ महाबीरन सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक एवं पौराणिक धर्मस्थली है। मंदिर परिसर में आज भी 1889 अंकित (चीना) घंटा लोगों के आकर्षण का केंद्र है। मान्यता है कि यहां माथा टेकने वालों की मनोकामनाएं जरूर पूरी होती हैं।